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________________ ३० हो वहां कार्य की उत्पत्ति भी न हो तो उसका कार्यके प्रति कार्यकारणभाव किंवा अन्वयव्यतिरेक संबंध माना जाता है । जिन दोनोंमें इस प्रकारसे अन्वयव्यतिरेक घटित होते हैं उन दोनोंमें कार्यकारणभाव होता है । आलोकका ज्ञानके प्रति अन्वय तथा व्यतिरेक घटित नहीं होता इस लिये वह ज्ञानके प्रति कारण नहीं है। क्योंकि बिल्ली आदिक कुछ रात्रिचरोंको रात्रिमें भी ज्ञान होता है जब कि आलोक नही रहता और आलोकके रहते हुए भी उल्ल आदिकको ज्ञान नहीं होता इसलिये अन्वयनियम ( कार्यसत्त्वे कारणसत्त्वरूप ) तथा व्यतिरेकनियम ( कारणाभावे कार्याभावरूप ) संभव नहीं होता । इसी प्रकार केशमशकादिके न रहने पर भी केशमशकादिका ज्ञान होनेसे अर्थके साथ ज्ञाका कार्यकारणभाव संबंध माननेमें व्यतिरेक नियमका भंग होता है । अतः अर्थ भी ज्ञानके प्रति कारण नहीं है । इस प्रकार जब आलोक और अर्थ ज्ञानके प्रति कारण नहीं हो सकते हैं तब ज्ञान, अर्थसे उत्पन्न होनेवाला किस प्रकार हो सकता है ? इसी लिये परीक्षामुखमें कहा है कि "अर्थ और आलोक ज्ञानके प्रति कारण नहीं है ।" ज्ञानकी प्रमाणता तो ज्ञानमें जो विषय हुआ है उसमें विपरीतता न होने मात्र से ही सिद्ध हो जाती है, न कि पदार्थ से उत्पन्न होनेसे । "मैं सुखी हूं” “मैं दुःखी हूं" इस प्रकारका स्वसंवेदनज्ञान अर्थG [विषयसे उत्पन्न होनेवाला ] न होकर भी प्रमाण माना है इस लिये भी जो अर्थजन्य है वही प्रमाण है यह कहना ठीक नहीं है । स्वसंवेदन अपनेसे ही उत्पन्न होता है एतावता अर्थजन्य है यह कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि कोई भी अपने आपसे उत्पन्न होता नहीं माना जाता और न संभव ही है । नन्वतज्जन्यस्यान्यस्य कथं तत्प्रकाशकत्वमिति चेत्, घटाजन्यस्यापि प्रदीपस्य तत्प्रकाशकत्वं दृष्ट्वा सन्तोष्टव्यमायुष्मता । अथ कथमयं विषयं प्रति नियमः ? यदुक्तं घटज्ञानस्य
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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