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________________ २४ दोष आता है इसलिये उनका भी कथन ठीक नहीं है । अर्थात् यह उनका लक्षण, उनके सम्पूर्ण लक्ष्योंमें घटित नहीं होता, क्योंकि जिसधारावाहिक ज्ञानको उन्होंने प्रमाण माना है, वह पहले कभी भी निश्चित न हुए ऐसे यथार्थ अर्थका निश्चायक नहीं है । इस. पर यह समाधान कहना कि “उस धारावाहिक ज्ञानमें उत्तरोत्तर क्षणविशेषोंसे (विशेष विशेष क्षण ) युक्त पदार्थका प्रतिभास होता है, इसलिये वह पहलेसे अज्ञान ऐसे यथार्थ अर्थका ही निश्चायक है" ठीक नहीं है, क्योंकि क्षण अत्यन्त सूक्ष्म हैं इसलिये हम सरीखोंको उनका आभास भी नहीं होसकता। "अनुभूतिः प्रमाणम्" इति प्राभाकराः । तदप्यसङ्गतम् , अनुभूतिशब्दस्य भावसाधनत्वे करणलक्षणप्रमाणाव्याप्तेः, करणसाधनत्वे तु भावलक्षणप्रमाणाव्याप्तेः, करणभावयोरुभयोरपि तन्मते प्रामाण्याभ्युपगमात् । तदुक्तं शालिकानाथेन “यदा भावसाधनं तदा संविदेव प्रमाणं करणसाधनत्वे त्वात्मनः सन्निकर्षः" इति । __ "अनुभूति ( अनुभव ) प्रमाण है" ऐसा प्रभाकरमतानुयायियोंका कहना भी युक्तिसङ्गत नहीं है। क्योंकि उनके मतमे करणसाधन और भावसाधन दोनों ही प्रकारकी अनुभूतिको प्रमाण माना गया है । सोई शालिकानाथने कहा है कि "जिस समय भावसाधन है उस समय संवित (ज्ञान) प्रमाण है और जिस समय करणसाधन है उस समय आत्माका सन्निकर्ष प्रमाण है।" इसलिये यह लक्षण परस्परमें अव्याप्त है-अर्थात् जिस १ क्योंकि धारावाहिक ज्ञान उसीको कहते हैं जो पूर्व समयमें विषय किये हुए ही पदार्थको उत्तर समयमें विषय करै । अर्थात् वह अधिगत पदार्थको ही विषय करता है, इसलिये अज्ञातका निश्चायक नहीं है। २ जिसके द्वारा अनुभव किया जाय ऐसा सन्निकर्ष । ३ अर्थात् अनुभवकरना, अनुभवनमात्र।
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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