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________________ १३ हैं क्योंकि अचेतन हैं । इसलिये अज्ञानके विरोधी चैतन्य धर्मको ही प्रमितिके प्रति करण मानना उचित है । लोकमें भी अन्धकार हटानके लिये उसके विरोधी प्रकाशका ही आश्रय लेना पड़ता है, न कि घटादिकका । क्योंकि वह (घट) उस अंधकारका विरोधी नहीं है । इसलिये इन्द्रियादिक जब प्रमितिके प्रति करण ही नहीं हैं तो उनमें प्रमाणके लक्षणकी अतिव्याप्ति कैसे आसकती है ? किचाखसंविदितत्वादक्षादेर्नार्थप्रमितौ साधकतमत्वं स्वावभासनाशक्तस्य परावभासकत्वायोगात् । ज्ञानं तु स्वपरावभासकं प्रदीपादिवत्प्रतीतम् । ततः स्थितं प्रमितावसाधकतमत्वादकरणमक्षादय इति । चक्षुषा प्रमीयते इत्यादिव्यवहारे पुनरुपचारः शरणम् । उपचारप्रवृत्तौ च सहकारित्वं निबन्धनम् । न हि सहकारित्वेन तत्साधकमिदमिति करणं नाम, साधकविशेषस्यातिशयवतः करणत्वात् । तदुक्तं जैनेन्द्रे"साधकतमं करणः ।" तसान लक्षणस्याक्षादावतिव्याप्तिः। पदार्थका ज्ञानकरनेमें इन्द्रियोंको साधकतम न होसकनेका दूसरा हेतु यह भी है कि इन्द्रियां अखसंवेदी हैं अर्थात् वे अपने खरूपको नहीं जानतीं । जो अपने स्वरूपको ही नहीं जान सकता वह दूसरेको भी प्रकाशित कैसे कर सकता है? हमने जो ज्ञानको साधकतम माना है, सो दीपककी तरह अपनेको भी और दूसरेको भी प्रकाशित करनेवाला है।शान निज और परको प्रकाशित करता है यह बात सभीको अपने २ अनुभवसे मान्य है। इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि प्रमितिके प्रति साधकतम न होसकनेके कारण इन्द्रियोंको करण नहीं कह सकते। यहां पर यद्यपि यह प्रतीति बताई गई थी कि 'मैं अपनी आंखके द्वारा भले प्रकार जानता हूं' और इस प्रतीतिसे यह बात सिद्ध की गई थी
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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