SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . लक्षणकथनमिति न्यायात्प्रधानत्वेन प्रथमोद्दिष्टस्य प्रमाणस्य तावल्लक्षणमनुशिष्यते । परस्पर विरुद्ध अनेक युक्तियोंमेंसे, कौनसी युक्ति प्रबल है और कौनसी दुर्बल है इस बातके निश्चय करनेकेलिये 'यदि ऐसा माना जायगा तो ऐसा होगा और उसके विरुद्ध ऐसा माना जायगा तो ऐसा होगा' इस प्रकार जो विचार किया जाता है, उसको परीक्षा कहते हैं । प्रमाण और नय इन दोंनोका उद्देश तो सूत्रमें ही किया जा चुका है, किंतु अब उसका लक्षण कहना चाहिये । लक्षण कहने पर जैसा उचित होगा, परीक्षा स्वयं होजायगी । यह न्याय है कि, "जिस क्रमसे उद्देश किया जाय, उसी क्रमसे लक्षण भी होना चाहिये” । नयोंसे प्रमाण प्रधान है, इसलिये सूत्रमें नयोंसे पहले कहे हुए प्रमाणका ही लक्षण प्रथम कहते हैं: सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । अत्र प्रमाणं लक्ष्यम् । सम्यग्ज्ञानत्वं तस्य लक्षणम् । गोरिव सास्नादिमध्वम्, अमेरिवौष्ण्यम् । अत्र सम्यक्पदं संशयविपर्ययानध्यवसायनिरासाय क्रियते । अप्रमाणत्वादेतेषां ज्ञानानामिति । तथा हि समीचीन ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । यहां पर प्रमाण तो लक्ष्य है और सम्यग्ज्ञानत्व उसका लक्षण है । जैसे गौका लक्षण सांस्नादिमत्व अथवा अग्निका लक्षण उष्णता । अर्थात् यह प्रमाण का लक्षण आत्मभूत लक्षण है । 1 यहां पर ज्ञानके साथ जो सम्यक् शब्द विपर्यय, अनध्यवसायरूप तीन मिथ्या दिया है वह संशय, ज्ञानोंके निराकरण १ गायके गलेमें जो मांसल चमड़ा लटकता रहता है, उसको साना कहते हैं।
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy