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________________ १३३ पदार्थ असद्रूप हुआ और असद्रूप पदार्थ किसी प्रयोजनीभूत क्रियाको कर नहीं सकता। (शङ्का) प्रतिनियत अपेक्षाका विषय होनेसे भिन्न भिन्न सिद्ध होनेवाले एकत्वादिक धर्म, परस्पर साहचर्यकी अपेक्षा न रखने पर यदि मिथ्या हुए तो इनका जो साहचर्यलक्षण समुदाय होगा वह भी मिथ्या ही ठहरेगा । (समाधान ) हम इसको स्वीकार करते हैं। क्योंकि जिस प्रकार पटरूप अवस्थासे रहित तन्तुओंका समुदाय शीतनिवारणादिरूप इष्ट क्रिया नहीं कर सकता, उसी प्रकार परस्परमें उपकार्योपकारकभावके छोड़ देनेपर दूसरे नयोंसे निरपेक्ष रहकर खतन्त्ररूपसे एकत्वादिक धर्म इष्ट क्रियाको उत्पन्न नहीं कर सकते । इसलिये उन मिथ्या नयोंका समूह भी कथंचित् मिथ्या ही मानना चाहिये। तदुक्तमाप्तमीमांसायां स्वामिसमन्तभद्राचार्यैः "मिथ्यासमहो मिथ्याचेन मिथ्यकान्ततास्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकृत् ॥१॥" इति । ततो नयप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिरिति सिद्धः सिद्धान्तः । इति पर्याप्तमागमप्रमाणम् । इति तृतीयः प्रकाशः। इति श्रीपरमाहताचार्यधर्मभूषणयतिविरचिता न्यायदीपिका समाप्ता। इसीलिये खामी समन्तभद्राचार्यने आप्तमीमांसामें ऐसा कहा है कि “मिथ्या नयोंका समुदाय मिथ्या हो तो हो परंतु हमारी
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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