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________________ १२२ घटादिस्वरूपमेव । तथा चाह भगवान्माणिक्यनन्दिभट्टारका "सामान्यविशेषात्मा तदर्थः" इति । __ यदि सामान्यको व्यक्तिसे सर्वथा, भिन्न नित्य, एक, अनेकोंमें रहनेवाला ही माना जाय तो “घटादिकी उत्पत्तिके समय वह सामान्य न तो कहींसे आता ही है, और न वहांपर रहता ही है, तथा घटका नाश होनेपर नष्ट भी नहीं होता, एवं घटका नाश होनेपर घटरूप पहले आधारको छोड़कर कहीं जाता भी नहीं, यह सब दोषोंका समूह दुर्निवार हो जाता है" इत्यादि दिङ्नागाचार्यके दिये हुए अनेक दूषणगणका आना दुर्निवार हो जावेगा । जिस समय घटके उदरस्थानपर फूले हुए आकारादिको देखते हैं, उसके ठीक पीछेके समयमें ही यह घट है अथवा यह गौ है इस प्रकार सामान्यका ज्ञान होता है । इसी प्रकार विशेष भी, जिसके आलम्बनसे यह घट बड़ा है अथवा यह घट छोटा है इत्यादि विलक्षण ज्ञान होता है, घटादिकका ही स्वरूप है । इसी लिये भगवान् माणिक्यनन्दी भट्टा. रकने यह कहा है कि "सामान्य और विशेष स्वरूपात्मक पदार्थ ही ज्ञानका विषय है"। पर्यायो द्विविधः, अर्थपर्यायो व्यञ्जनपर्यायश्चेति । तत्रार्थपर्यायो भूतत्वभविष्यत्त्वसंस्पर्शरहितशुद्धवर्तमानकालत्वावच्छिन्नं वस्तुस्वरूपम् । तदेतदृजुमूत्रनयविषयमामनन्त्यभियुक्ताः। एतदेकदेशावलम्बिनः खलु सौगताः क्षणिकवादिनः। व्यञ्जनं व्यक्तिः, प्रवृत्तिनिवृत्तिनिवन्धनजलानयनाद्यर्थक्रियाकारित्वम् । तेनोपलक्षितः पर्यायो व्यञ्जनपर्यायो-मृदादेः पिण्डस्थासकोशकुमूलघटकपालादयः पर्यायाः । पर्यायके दो भेद हैं, एक अर्थपर्याय दूसरा व्यञ्जनपर्याय । जो भूत और भविष्यत्कालका स्पर्श न करनेवाला केवल शुद्ध वर्त.
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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