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________________ १२० कहा क्योंकि उपदेश देनेवाले मुख्यतया अर्हन्त ही हैं। वाकीके दूसरे छद्मस्थ आचार्यादिको जो उपदेशक माना जाता है वह गौण है; क्योंकि वे दूसरोंके प्रश्न के आश्रयसे उत्तर देते हैं। परन्तु सिद्धपरमेष्ठी स्वयं अथवा दूसरेके प्रश्नवश भी किसीको उपदेश नहीं देते, इसलिये उक्त विशेषणके (उत्कृष्ट हितका उपदेश देनेवाले) कहनेसे सिद्धोंमें अतिव्याप्ति नहीं आती । इस प्रकार आप्तके सद्भावमें प्रमाण दिखाया। नैयायिकादिकोंके द्वारा माने हुए झूठे आप्तोंमें यह आप्त लक्षण इसी लिये नहीं संभवता कि वे असर्वज्ञ हैं और हम "प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों के यथार्थ जाननेवाले” को ही आप्त कहते हैं। ननु नैयायिकाभिमत आप्तः कथं न सर्वज्ञः ? इति चेदुच्यते । तस्य ज्ञानस्यास्वप्रकाशकत्वादेकत्वाच्च विशेषणभूतं स्वकीयं ज्ञानमेव न जानातीति तद्विशिष्टमात्मानं सर्वज्ञोऽ हमिति कथं जानीयात् ? एवमनात्मज्ञोयमसर्वज्ञ एव । प्रपञ्चितं च सुगतादीनामाप्ताभासत्वमाप्तमीमांसाविवरणे श्रीमदाचार्यपादैरिति विरम्यते । वाक्यं तु तत्रान्तरसिद्धमिति नेह लक्ष्यते । यदि यहांपर कोई यह शङ्का करे कि नैयायिकोंका माना हुआ आप्त सर्वज्ञ क्यों नहीं है? तो उसका उत्तर यही है कि उस (नैयायिक)ने अपने ज्ञानको स्वप्रकाशक नहीं माना है और फिर भी एक माना है, इसलिये वह आप्त जब विशेषणभूत अपने ज्ञानको ही नहीं जान सकता हो, तो उस ज्ञानसे युक्त अपने आत्माको इस प्रकार किसतरह जान सकता है कि "मैं सर्वज्ञ हूं"। इस. लिये जब वह आत्माको भी नहीं जान सकता तो स्पष्ट ही वह असर्वज्ञ है। बुद्धादिकोंकी असर्वज्ञताका वर्णन आप्तमीमांसाविवरणमें आचार्योंने अच्छी तरह किया है, इसलिये हम अब
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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