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________________ ९१ जब कोई स्वरूप ही नहीं है तब उसका अन्यथानुपपत्तिरूपसे निश्चय किस तरह हो सकता है ? ततः साध्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वेन निश्चयपथप्राप्त्यभावादेवास्स हेत्वाभासत्वं, नतु पक्षधर्मत्वाभावात् , अपक्षधर्मस्थापि कृत्तिकोदयादेर्यथोक्तलक्षणसम्पत्तेरेव सद्धेतुत्वप्रतिपादनात् । विरुद्धादेस्तु तदभावः स्पष्ट एव । नहि विरुद्धस्य व्यभिचारिणो बाधितविषयस्य सत्प्रतिपक्षस्य वान्यथानुपपत्तिमत्वेन निश्चयपथप्राप्तिरस्ति । तस्माद्यस्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति योग्यदेशे निश्चयपथप्राप्तिरस्ति स एव सद्धेतुः, अपरस्तदाभास इति स्थितम् । इसलिये, इस हेतुकी साध्यान्यथानुपपत्तिका निश्चय नहीं है अत एव यह हेत्वाभास है, न कि इसलिये कि इसमें पक्षधर्मताका अभाव है। क्योंकि 'कृत्तिकोदय' हेतुको पक्षमें न रहनेपर भी, उपयुक्त अन्यथानुपपत्तिरूप लक्षणसे युक्त होनेके कारण ही सद्धेतु माना है । विरुद्धादि हेत्वाभासोंमें तो अन्यथानुपपत्तिका अभाव स्पष्ट ही है । विरुद्ध, व्यभिचारी, बाधितविषय या सत्प्रतिपक्ष इनमेसे किसी भी हेत्वाभासमें अन्यथानुपपत्तिरूपसे निश्चय होना संभव नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जिसकी साध्यके साथ अन्यथानुपपत्ति सिद्ध होती हो और फिर साध्य सिद्ध करते हुए जिसका रहना किसी भी उचित स्थानमें निश्चित होता हो वह सच्चा हेतु है, और सब (इससे विरुद्ध) हेत्वाभास है। किंच गर्भस्थो मैत्रतनयः श्यामो भवितुमर्हति, मैत्रतनयत्वात् सम्प्रतिपत्रमैत्रतनयवदित्यत्रापि त्रैरूप्यपाश्चरूप्ययोबौद्धयौगाभिमतयोरतिव्याप्रलक्षणत्वम् । तथा हि, परिदृश्यमानेषु
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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