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________________ प्रमाण-नय-तत्त्वालोक] . (८८) का वाचक और अवाचक है अर्थात् सातवें ही भङ्ग का वाचक है, यह एकान्त भी मिथ्या है । क्योंकि शब्द कंवल विधि आदि का भी वाचक है ॥ विवेचन-शब्द क्रम से विधि निषेध रूप पदार्थ का वाचक और युगपत् विधि-निषेध रूप पदार्थ का अवाचक है, अर्थात् केवल सप्तम भङ्ग का ही वाचक है, यह एकान्त मान्यता भी मिथ्या है क्योंकि शब्द प्रथम, द्वितीय, तृतीय श्रादि भंगों का भी वाचक है। भङ्ग-संख्या पर शंका और समाधान - एकत्र वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानन्तधर्माभ्युपगमेनानन्तभंगीप्रसंगादसंगतव सप्तभंगीति न चेतसि निधेयम् ॥ ३७॥ विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुन्यनन्तानामपि सप्तभंगीनामेर सम्भवात् ।। ३८॥ अर्थ-जीव आदि प्रत्येक वस्तु में विधि रूप और निषेत्ररूप अनन्तधर्म स्वीकार किये हैं अतः अनन्नभंगी मानना चाहिए; सप्तभंगी मानना असंगत है। ऐसा मन में नहीं सोचना चाहिये । क्योंकि विधि-निषेध के भेद से, एक धर्म को लेकर एक वस्तु में अनन्त सप्तभंगियाँ ही हो सकती हैं-अनन्तभंगी नहीं हो सकती। विवेचन-शंकाकार का कथन यह है कि जैनों ने एक वस्तु में अनन्त धर्म माने हैं अतः उन्हें सप्तभंगी के बदले अनन्तभंगी माननी चाहिए । इसका उत्तर यह दिया गया है कि एक वस्तु में अनन्त धर्म
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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