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________________ (८१) [चतुर्थ परिच्छेद स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपद् विधिनिषेधकल्पनया च सप्तम इति ॥ २१ ॥ १ अर्थ-स्यात् ( कथञ्चित् ) सब पदार्थ हैं, इस प्रकार विधि की कल्पना से पहला भङ्ग होता है ।। २ कथंचित् सब पदार्थ नहीं हैं, इस प्रकार निषेध की कल्पना से दूसरा भंग होता है। __ ३ कथंचित् सब पदार्थ हैं, कथंचित् नहीं हैं, इस प्रकार क्रम से विधि और निषेध की कल्पना से तीसरा भंग होता है । ४ कथंचित् सब पदार्थ अवक्तव्य हैं, इस प्रकार एक साथ विधिनिषेध की कल्पना से चौथा भङ्ग होता है ॥ . ५ कथंचित् सब पदार्थ हैं और कथंचित् अवक्तव्य हैं, इस प्रकार विधि की कल्पना से और एक साथ विधि-निषेध की कल्पनासे पाँचवाँ भङ्ग होता है ।। ६ कथंचित् सब पदार्थ नहीं है और कथंचित् अवक्तव्य हैं, इस प्रकार निषेध की कल्पना से और एक साथ विधि-निषेध की कल्पना से छट्ठा भङ्ग होता है ॥ ___ ७ कथंचित् सब पदार्थ हैं, कथंचित् नहीं हैं, कथंचित् अवक्तव्य हैं, इस प्रकार क्रम से विधि-निषेध की कल्पना से और युगपद् विधिनिषेध की कल्पना मे सातवा भङ्ग होता है। विवेचन-सप्तभंगी के स्वरूप में बताया गया है कि एक ही .
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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