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________________ (१६३) [ अष्टम परिच्छेद सभ्यों का कर्तव्य वादिप्रतिवादिनौ यथायोगं वादस्थानककथाविशेषांगीकारणाऽग्रवादोत्तरवादनिर्देशः, साधकबाधकोक्तिगुणदोषावधारणम, यथावसरं तत्फलप्रकाशनेन कथाविरमणम् , यथासंभवं सभायां कथाफलकथनं चैषां कर्माणि ॥ १६ ॥ अर्थ-वादी और प्रतिवादी को वाद के स्थान का निर्णय करना, कथा-विशेष को स्वीकार कराना, पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष नियत कर देना, बोले हुए साधक और बाधक प्रमाणों के गुण दोष का निश्चय करना, अवसर आने पर ( जब वादी, प्रतिवादी या दोनों असली विषय को छोड़कर इधर-उधर भटकने लगें तब ) तत्त्व को प्रकट करके वाद को समाप्त करना, और यथायोग्य वाद के फल (जय-पराजय ) की घोषणा करना, सभ्यों का कर्तव्य है। . सभापति का लक्षण प्रज्ञाऽऽश्विर्यक्षमामाध्यस्थसम्पन्नः सभापतिः ॥२०॥ अर्थ-प्रज्ञा, आज्ञा, ऐश्वर्य, क्षमा और मध्यस्थता गुणों से युक्त सभापति होता है। विवेचन-जो स्वयं बुद्धिशाली हो, आज्ञा प्रदान कर सकता हो, प्रभावशाली हो, क्षमाशील हो और वादी तथा प्रतिवादी के प्रति निष्पक्ष हो वही सभापति पद के योग्य है। सभापति का कन्य वादिसभ्याभिहितावधारणकलहव्यपोहादिकं चास्य कर्म ॥ २१ ॥
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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