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________________ प्रमाण-नय-तत्त्वालोक (१६०) अंग-नियम तत्र प्रथमे प्रथमतृतीयतुरीयाणां चतुरङ्ग एव, अन्यतमस्याप्यपाये जयपराजयव्यवस्थादिदौःस्थ्यापत्तेः॥१०॥ अर्थ-पूर्वोक्त चार प्रारम्भकों में से पहले जिगीषु के होने पर जिगीषु, परत्रतत्त्वनिर्णिनीषु क्षायोपशमिकज्ञानी और केवली प्रत्यारम्भक का वाद चतुरंग होता है । किसी भी एक अङ्ग के अभाव में जय-पराजय की ठीक व्यवस्था नहीं हो सकती। विवेचन-वादी, प्रतिवादी, मभ्य और सभापति, वाद के यह चार अङ्ग होते हैं। जिगीषुवादी के साथ उक्त तीन प्रतिवादियों का वाद हो तो चारों अंगों की आवश्यकता है। द्वितीये तृतीयस्य कदाचिद् द्वयङ्गः, कदाचिद् व्यङ्गः।११। अर्थ-दूमरे वादी-स्वात्मनितत्त्वनिर्णिनीषु का तीसरे प्रतिवादी-क्षायोपशमिकज्ञानी परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु का वाद कभी दो अङ्ग वाला और कभी तीन अङ्ग वाला होता है। विवेचन-स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषु जय-पराजय की इच्छा से वाद में प्रवृत्त नहीं होता, अतः उसके साथ परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु क्षायोपशमिकज्ञानी का वाद होने पर सभ्य और सभापति की आव. श्यकता नहीं है, क्योंकि सभ्य और सभापति जय-पराजय की व्यवस्था और कलह आदि की शान्ति करने के लिए होते हैं । अलबत्ता जब क्षायोपशमिकज्ञानी परत्र तत्त्वनिर्णिनीषु तत्त्व का निर्णय न कर सके तो दोनों को सभ्यों की आवश्यकता होती है। इसीलिये कभी दो अंग वाला और कभी तीन अङ्ग वाला वाद बतलाया गया है।
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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