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________________ अष्टम परिच्छेद वाद का निरूपण वाद का लक्षण विरुद्धयोधर्मयोरेकधर्मव्यवच्छेदेन स्वीकृततदन्यधर्मव्यवस्थापनार्थ साधनदृषणवचनं वादः॥१॥ अर्थ-परस्पर विरोधी दो धर्मों में से, एक का निषेध करके अपने मान्य दूसरे धर्म की सिद्धि के लिए साधन और दूषण का प्रयोग करना वाद है। विवेचन-आत्मा की सर्वथा नित्यता और कथंचित् नित्यता ये दो विरोधी धर्म हैं। इनमें से किसी भी एक धर्म को स्वीकार करके, और दूसरे धर्म का निषेध करके, वादी और प्रतिवादी अपने पक्ष को साधन के लिए और विरोधी पक्ष को दूषित करने के लिए जो वचनप्रयोग करते हैं वह वाद कहलाता है । वादी को अपने पक्ष की सिद्धि और पर पक्ष का निराकरण-दोनों करने पड़ते हैं और इसी प्रकार प्रतिवादी को भी दोनों ही कार्य करने पड़ते हैं । वादी-प्रारम्भक के भेद प्रारम्भकश्चात्र जिगीषुः, तत्त्वनिर्णिनीषुश्च ॥ २ ॥
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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