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________________ प्रमाण-नय-तत्वालोक ] (१५४) अनुमान से भी आत्मा सिद्ध है । इसके अतिरिक्त एगे आया ' इत्यादि आगमों से भी आत्मा सिद्ध है । यह आत्मा चैतन्यमय आदि विशेषणों से विशिष्ट है । चैतन्य स्वरूप - इस विशेषण से नैयायिक आदि का खण्डन होता है, क्योंकि वे आत्मा को चैतन्य रूप नहीं मानते । परिणामी - इस विशेषण से सांख्य मत का निराकरण होता है, क्योंकि सांख्य आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं, परिणमनशील नहीं मानते । कर्त्ता - यह विशेषण भी सांख्य-मत के निराकरण के लिए है । सांख्य आत्मा को अकर्त्ता मानते हैं और प्रकृति को कर्त्ता मानते हैं । साक्षात् भोक्ता - यह विशेषण भी सांख्य-मत के खण्डन के लिए है । सांख्य आत्मा को कर्म फल का साक्षात् भोगने वाला नहीं मानते। • स्वदेह परिमाण - इस विशेषण से नैयायिक और वैशेषिक मत का खण्डन किया गया है, क्योंकि वे आत्मा को आकाश की भाँति व्यापक मानते हैं । प्रतिशरीरभिन्न- इस विशेषण से वेदान्त मत का खण्डन किया गया है, क्योंकि वेदान्त मत में एक ही आत्मा माना गया है । वे समस्त शरीरों में एक ही आत्मा मानते हैं । पौद्गलिक अदृष्टवान् - यह विशेषण नास्तिक मत का खण्डन करता है, क्योंकि नास्तिक लोग अदृष्ट नहीं मानने । तथा जो लोग अदृष्ट मानते हैं किन्तु उसे पौद्गलिक नहीं मानते उनके मत का भी इससे खण्डन होता है ।
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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