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________________ (१३५) [सातवाँ परिच्छेद विवेचन-वस्तु के अनन्त अंशों (धर्मों) में से एक अंश को ग्रहण करकं शेष समस्त अंशों का प्रभाव मानने वाला नय ही नयाभास है । तात्पर्य यह है कि नय एक अंश को ग्रहण करता है पर अन्य अंशों पर उपेक्षा भाव रखता है और नयाभास उन अंशों का निषेध करता है । यही नय और नयाभास में अन्तर है। नय के भेद स व्याससमासाम्यां द्विप्रकारः ॥३॥ व्यासतोऽनेकविकल्पः॥४॥ समासतस्तु द्विभेदो द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च ॥ ५॥ अर्थ-नय दो प्रकार का है-व्यासनय और समासनय ।। व्यासनय अनेक प्रकार का है ।। समामनय दो प्रकार का है-द्रव्यार्थिक नय और -पर्यायार्थिक नय ॥ विवेचन-विस्तार रूप नय व्यासनय कहलाता है और संक्षेप रूप नय समास नय कहलाता है। नय के यदि विस्तार से भेद किए जाएँ तो वह अनन्त होंगे, क्योंकि 'वस्तु में अनन्त धर्म हैं और एकएक धर्म को जानने वाला एक-एक नय होता है । अतएव व्यास-नय के भेदों की संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती। समासनय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के भेद से दो प्रकार का है । द्रव्य को मुख्य रूप से विषय करने वाला द्रव्यार्थिक और पर्याय को मुख्यरूप से विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय है।
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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