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________________ :- प्रमाण-नग्र-तत्त्वालोक (६८) - पर्यायस्तु क्रमभावी, यथा-तत्रैव सुखदुःखादि ॥ ८ ॥ अर्थ-विशेष भी दो प्रकार का है-गुण और पर्याय ॥ सहभावी अर्थात् सदा साथ रहने वाले धर्म को गुण कहते हैं। जैसे-वर्तमान में विद्यमान कोई ज्ञान और भावी ज्ञान रूप परिणाम को योग्यता । ____ एक द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणाम को पर्याय कहते हैं, जैसे आत्मा में सुख-दुःख आदि । विवेचन-सदैव द्रव्य के साथ रहने वाले धर्मों को गुण कहते हैं। जैसे आत्मा में ज्ञान और दर्शन सदा रहते हैं, इनका कभी विनाश नहीं होता। अतएव यह आत्मा के गुण हैं। रूप, रस, गंध स्पर्श सदैव पुद्गल के साथ रहते हैं-पुद्गल से एक क्षण भर के लिए भी कभी न्यारे नहीं होते, अतः रूप आदि पुद्गल के गुण हैं । गुण द्रव्य की भाँति अनादि अनन्त होते हैं। पर्याय इससे विपरीत है । वह उत्पन्न होती रहती है और नष्ट भी होती रहती है। प्रात्मा जब मनुष्य-भव का त्याग कर देव-भव में जाती है तब मनुष्य पर्याय का विनाश होजाता है और देव पर्याय की उत्पत्ति हो जाती है । एक वस्तु की एक पर्याय का नाश होने पर उसके स्थान पर दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है अतएव पर्याय को क्रमभावी कहा है। -orii-SINE .inccn.. - RRCo-se - --.-D
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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