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________________ ४२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित णहारी सारस्वत विद्या है | बहुरि नष्ट मुष्टि आदिकी सूचना जात होय सो चाण्डलिक विद्या है । इहां बहुरि नैयायिकमती तर्क करै है, जो अंजन आदिके संस्कार नेत्रकै भी ऐसा अतिशय देखिये है ? ताका समाधान; – आचार्य कहै है, ऐसें नांहीं है जातैं नेत्रके अतिशय होय है सो अपने विषयविषै ही होय है अपना विषयकूं नांहीं उलंघै है, ऐसा तो नांहीं जो अंजनके संस्कारर्तें नेत्र अपनां विषय सिवाय जो रस गंध तिनिकौं जाणै, सो ही कया है; 'उक्तं च' श्लोक है ताका अर्थ ;जहां अतिशय देखिये है सो अपने विषयकूं उलंघिकरि नांही होय है श्रोत्रकी प्रवृत्ति रूपविषै तौ अतिशय होय नांहीं जो होय तौ दूरवर्त्ती तथा सूक्ष्मवस्तुके देखनेविषै नेत्रकै अतिशय होय । इहां नैयायिक फेरि कहै है; — जो यह श्लोक तौ सर्वज्ञके निषेधकै अर्थि मीमांसकनैं कह्या है इहां तुमनैं कह्या सो मिले नांहीं यह दृष्टान्त विषम है ? ताका सामाधान; इहां दृष्टान्त इन्द्रियनिकै अन्यके विषयविषै प्रवर्तनेंका अतिशयका अभावमात्र दिखावनेंकी समानतामात्र कह्या है ता ब है, दृष्टान्तका सर्वही धर्म तौ दान्तविषै होय नांही जो सर्व ही धर्म मिलै तौ दृष्टान्त नांही दान्त ही होय है । तातैं यह निश्चय भया जो प्रत्यक्ष अनुमानतैं न्यारा ही प्रत्यभिज्ञान वस्तुभूत है जातैं इसकी सामग्री अर स्वरूप दोऊ ही भेदरूप न्यारे ही हैं । बहुरि यह प्रत्यभिज्ञान अप्रमाण नांही है जातैं इस प्रत्यभिज्ञान अर्थकूं जाणकरि तिस विषै प्रवर्तनेवालाकै अर्थकिया मैं विसंवाद नांही है, जैसे प्रत्यक्षकार विषयविषै प्रवर्तनेवालेकै विसंवाद नांही तैसैं इहां भी १ तथा चोक्तम्;-- यत्राऽप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलंघनात् । दूर सूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तितः ॥ १ ॥
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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