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________________ द्वितीय-समुद्देश। (२) आU प्रमाणका स्वरूपकी विप्रतिपत्ति दूरि करि अब संख्याकी विप्रतिपत्ति निराकरण करता संता आचार्य सकल प्रमाणके भेदनिकी रचनाका संग्रह जामैं पाइये अर प्रमाणकी संख्या जामैं पाइये ऐसा सूत्र कहैं हैं; तद्वधा ॥१॥ __ याका अर्थ—सो प्रमाण दोय प्रकार है। इहां तत्शब्दकरि तौ प्रमाणका परामर्श करनां । सो ही प्रमाण पहले स्वरूपकरि निश्चय किया सो दोय प्रकार है । इहां एवकार अवधारण अर्थमें लेना जो संक्षेपकरि प्रमाणकी संख्या दोय है एक तीन आदि नांही है । यामैं प्रमाणके जे ते भेद हैं तिनि सर्वका अन्तर्भाव है ॥ १॥ __ आगैं जो प्रमाणकी संख्या दोय भेदरूप कही सो दोयपणां प्रत्यक्ष अनुमान भेदकरि भी संभव है ताकी आशंका दूरि करने• प्रमाणके जे समस्त भेद तिनिका संग्रह करनेवाली ऐसी संख्याकू प्रगट करै है प्रत्यक्षतरभेदात् ॥२॥ याका अर्थ-पहले सूत्रमैं कही जो प्रमाणकी दोय संख्या सो प्रत्यक्ष अर परोक्ष ऐसैं दोय भेदते है। तहां प्रत्यक्षका लक्षण आगैं कहसी तिस” इतर कहिये अन्य परोक्ष ऐसैं दोय भेदते प्रमाणकी संख्या दोयरूप है। अन्यमतीनिकरि कल्पित जो प्रमाणकी एक दोय तीन च्यारि पांच छह प्रकार संख्या ताका नियमविौं समस्त प्रमाणके भेदनिका अन्तर्भाव किया न जाय है सो ही कहिये है;-प्रथम तौ
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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