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________________ २८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितपणां ताका अभाव होते स्वाभाविक प्रमाणपणां निर्दोष आप ही तिष्ठै है तातें यह ठहरी जो प्रमाणपणां उत्पत्तिवि अन्यसामग्रीकी अपेक्षा नाही करै है । बहुरि विषयका जाननेकी क्रियारूप जो अपना कार्य ताविर्षे अपने जाननेंकी भी अपेक्षा न करै है । जो प्रमाण आप आपकू जानैं तब अन्यविषयकू जाणें ऐसी अपेक्षा नाही चाहै है, जातें आपका प्रमाणपणां जानें विना ही ज्ञानकै विषयके जाननेकी क्रियारूप कार्य देखिये है । बहुरि कहोगे जो जाननक्रियामात्र तौ प्रमाणका कार्य नाही जातें जाननक्रियामात्र तो मिथ्याज्ञानवि भी पाइए है । जाननक्रियाका विशेष है सो तो पहली प्रमाणकी प्रमाणता ग्रहण होय तब उपजै सो ऐसा कहनां भी बालकका विलास है विना समझ्यां कहनां है जातें प्रमाणका प्रमाणपणां ग्रहणके उत्तरकालमैं उत्पत्ति अवस्थातें जाननक्रियाका विशेष कछू भासै नाही, जैसा जाननां प्रमाणपणां ग्रहण होते होय है तैसाही विना ग्रहण किये होय है जाका प्रमाणपणां ग्रहण किया जो यह मेरा ज्ञान प्रमाण है तिसतें भी विषयके जाननेमैं तो किछू विशेष भासता नाही, निर्विशेष विषयकी उपलब्धि है । बहुरि कहोगे जो जाननेमात्रका तौ सीपकै विर्षे रूपेका ज्ञान भया तामैं भी सद्भाव है सो याकै भी प्रमाणका कार्यपणांका प्रसंग आवै है । तो ऐसैं तो जब होय जो वस्तुविर्षे अन्यथापणांकी प्रतीति अर अपने कारणकरि उपज्या दोषका ज्ञान इनि दोऊनिकरि निराकरण न कीजिये सो इहां सीपविथें रूपाका ज्ञान होय तौ ताका निराकरण होय है जो यह रूपा नाही सीप है । बहुरि नेत्रनिमैं दोष है तातैं रूपा दीखै है ऐसैं तिसज्ञानका बाधक है तातें तिसकै प्रमाणपणांका प्रसंग नाही आवै है । तातें जिस वस्तुविर्षे प्रमाणका कारणका तौ दोषका ज्ञान अर बाधककी प्रतीति न होय तहां प्रमाणका प्रमाणपणां आपहीतें होय है ।
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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