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________________ २६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विराचित है, बहुरि अनभ्यासदशाविर्षे परतें प्रमाणता होय है, ऐसा निश्चय है। इहां अभ्यासदशा तौ सो कहिये जहां बारबार ग्रहण होय अनभ्यास जो प्रथम ही ग्रहण होय सो कहिये। जैसैं जा गांवमैं आप वसै ताका सरोवरका जल आपकै अभ्यासमै आप रह्या होय तहां तिसका जलका प्रमाणपणां तथा जलज्ञानका प्रमाणपणां आपकै आपही” होय है ताकी प्रमणता करने में अन्य प्रमाणदिकका सहाय चाहै नांही तिस सरोवरकै समीप जाते ही स्नान करनां, जल भरना, पीवनां आदि कार्य निःशंकपणे करै है सो इहां तौ अभ्यासदशाविर्षे स्वत: प्रामाण्य भया। बहुरि सो ही पुरुष अन्यप्रामादिक जाय तहां मार्गमैं दूरितैं जलका निवास देखै तहां अपने ज्ञानकी तथा जिस जलरूप विषयकी प्रमाणता आई नाही, विचारने लगा यह जल है कि भाडली है ? कि कांश फूलि रह्या है ? कि मोकू अन्यथा दीखै है ? ऐसा संशय उपज्या तहां जे जलकी प्रमाणता करनेके कारण पूर्वै अभ्यासमैं थे, जो जहां अन्य लोक जल भरि ल्यावते होय तथा जल भरते होय तथा घट आदि जलके पात्र जहां दीखते होय तथा कमलनिकी सुगंध आवती होय मींडके बोलते होय इत्यादि कारणनितें तिस जलकी प्रमाणता आवै तहां अनभ्यासदशाविर्षे परतें प्रमाणपणां कहिये । बहुरि उत्पत्तिमैं परहीरौं कह्या सो अन्तरंग तो ऐसा ही ज्ञानावरणका क्षयोपशम अर बाह्य पापकर्म आदि दोषरहित अपना ज्ञान होय । बहुरि ज्ञानके कारण जे इंद्रियादिक ते निर्दोष निर्मलता आदि गुणकरि युक्त होय तब नवीन प्रमाणतारूप कार्य उपजै, जातें विशिष्ट कार्य होय जो विशिष्ट कारण” ही होय । बहुरि विषायका जाननेंरूप क्रिया है लक्षण जाका अर विषयविर्षे प्रवृत्ति होनां है लक्षण जाका ऐसा जो प्रमाणका कार्य ताविर्षे अभ्यासदशाविर्षे तौ प्रमाणकी प्रमाणता आपही” होय है अर अनभ्यासदशाविर्षे परतें होय है, ऐसा निश्चय कीजिये है।
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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