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________________ २० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित कहिये अन्य प्रमाणकरि ग्रह्मा होय तौ भी तादृक् कहिये अपूर्वार्थ हीं है । इहां ऐसा अर्थ भया जो अनिश्चित ऐसैं पूर्वै कह्या सो ही केवल अपूर्वार्थ नांही है, देखे विषै भी संशयादिक होय जाय सो भी अपूवार्थ है । इहां ऐसा अर्थ है जो अन्यप्रमाणकरि पहली ग्रह्या था सो धुंधला आकारपणां करि निर्णय न होय सकै सो भी वस्तु अपूर्व है जातैं तिसविषै प्रवर्त्त्या जो समारोप कहिये संशयादिक तिनिका व्यवच्छेद नांही है ॥ ५ ॥ आगैं जे ज्ञानकूं स्वप्रकाशक नांही मांनैं हैं ते कहैं हैं जो विज्ञान कै अपूर्वार्थ व्यवसायात्मकपणां तौ होहु परन्तु स्वव्यवसाय तौ हम नांही जानैं हैं, ऐसैं कहै ताकूं उत्तरका सूत्र कहै है; - स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्थ व्यवसायः ॥ ६ ॥ 1 याका अर्थ — अपने सन्मुखपणां करि अपनां प्रतिभासनां सो अपना व्यवसाय है । अपनें स्वोन्मुखपणां सो तौ ' स्वोन्मुखता कहिये ऐसैं अपना अनुभव ताकरि प्रतिभासनां प्रतीति होनां सो 'स्वस्य व्यवसाय' कहिये । तहां मैं मेरै तांई जानूं हूं ऐसी प्रतीति जाननीं ॥६॥ इहां दृष्टान्तका सूत्र कहै हैं; अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥ ७ ॥ याका अर्थ —जैसैं अर्थ कहिये अन्यपदार्थ ताकै सन्मुख होय ताकू जानै है तैसैं ही आपके सन्मुख होय अपनीं तरफ देखै तब आपकूं जानैं । इहां 'तत्' शब्द करि तौ अर्थका ग्रहण करनां जैसैं अर्थके सन्मुखपणां करि प्रतिभासनां होय तब अर्थका निश्चय होय है तैसैं अपने सन्मुखपणां करि अपनां प्रतिभासनां होय तब अपनां निश्चय. होय है ॥ ७ ॥
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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