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________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १९५ कहै-इहां क्रमसूं देखे है तहां पुरुषकै युगपत् देखनेका अभिमान है, सो ऐसे भी न कहनां जाते कालका अंतर नाही दीखै है एकही काल है। वहुरि विशेष कहैं हैं—जो क्रमका ज्ञान तौ प्राप्ति भयें ही नेत्रकै जाननेका निश्चय भये होय है, क्रम प्राप्ति वि अन्य प्रमाण तौ नाही है । इहां कहै-जो नेत्र इन्द्रियकैं तैजसपणां है इस हेतुकरि प्राप्त अर्थका प्रकाशपणां है यह अन्य प्रमाण है, तौ ताकू कहिये—यह नांही है, तैजसपणांकी सिद्धि नांही होय है । इहां नैयायिक तैजसपणां साधनेंकू प्रयोग करै है—नेत्र है सो तैजस है जानैं रूपादिक गुण है तिनिमैं सूं रूपका ही यह प्रकाशक है जैसैं दीपक है । आचार्य कहै है-यह भी प्रयोग विना विचारयां किया है जानैं इहां प्रदीपका दृष्टान्त कह्या सो तौ तैजस है अर मणि तथा अंजन आदिक पार्थिव हैं पृथिवीतैं उपजै हैं तेऊ रूपकू प्रकाशैं हैं । बहुरि नेत्रकू तेजोद्रव्यके रूप प्रकाशनेंतें तैजस कहिये तो पृथिवी आदिके रूपका प्रकाशक है, तातें याकै पृथिवी आदि करि रच्यापणांका प्रसंग आवै है, भावार्थ-नेत्र भी पार्थिव ठहरै है । तातै सनिकर्षकै अव्याकपणा है । तातै प्रमाणपणां नाही । बहुरि करण ज्ञानकरि याकै व्यवधान है, सन्निकर्ष भये पीछे इन्द्रिय ज्ञान पदार्थकू जाणें है सन्निकर्षही जानैं नांही । ऐसे करण ज्ञानकरि व्यवधान भया सन्निकर्षकरि ही तौ अर्थका संवेदन नाही भया तातें सन्निकर्ष प्रमाणाभासही है ॥५॥ __ आरौं प्रमाण सामान्याभास कहि करि अब प्रमाणविशेषका आभासे कहैं हैं, तहां प्रत्यक्षभास कहैं हैं; अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्मादमदर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् ॥६॥
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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