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________________ १९२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित 1 नेंतै प्रत्यक्षपणां है तौ करण ज्ञानकै भी करणपणांकरि प्रतिभासनेंतें प्रत्यक्षपणां होहु | तातैं अर्थ जाननेंकी अन्यथा अप्राप्तितैं जैसैं करण ज्ञान कल्पिये है तैसैं अर्थका प्रत्यक्षपणांकी अन्यथा अप्राप्तितैं ज्ञानकै प्रत्यक्षपणां भी होहु | बहुरि कहै — जो नेत्र आदि करणकै अप्रत्यक्षपणां होतैं भी रूपका प्रगटपणां होय है, तिसौं व्यभिचार आ है । तहां कहिये—जो भिन्न है कर्त्ता जातें ऐसा करणक ही यहु व्यभि - चार है, अभिन्नकर्तृककरण होर्ते संतैं तौ कर्त्ताका प्रत्यक्षपणां होतैं तिस कर्त्तातैं अभिन्न जो करण ताकै कथंचित् प्रत्यक्षपणांकार अप्रत्यक्ष एकान्तका विरोध है, जैसैं प्रकाश स्वरूपकै अप्रत्यक्षपणां होतैं प्रदीपकै प्रत्यक्षपणां होतैं विरोध है तैसें ॥ बहुरि गृहीतग्राही जो धारावाही ज्ञान सो गृहीतार्थ प्रमाणाभास है । बहुरि बौद्धकरि मान्यां जो निर्विकल्पस्वरूप प्रत्यक्ष प्रमाण सो दर्शन है, सो अपने विषयका उपदर्शकपणां याकै नांही है तातैं अप्रमाण है । जातैं तिस विषयभूत पदार्थतैं उपज्या जो व्यवसाय कहिये निश्चय ताहीकै अपना विषयका उपदर्शकपणां है । बहुरि बौद्ध कहै है— जो व्यवसायकै प्रत्यक्षपणां नांही प्रत्यक्षके आकार करि अनुरक्तपणां ही है तातैं प्रत्यक्षकै तौ प्रमाणपणां है अर व्यवसाय है सो तौ गृहीतग्राही है यातैं अप्रमाण है । तहां आचार्य कहैं हैं — यह सुभाषित नांही, दर्शन है सो विकल्परहित है ताका उपलंभ नांही तातैं ताका सद्भावका अयोग है । बहुरि सद्भाव मानिये तौ जैसे नील आदि विषै उपदर्शक है तैसें क्षणक्षयादिविषै भी ताका उपदर्शकपणां ठहरे है । बहुरि कहै— जो क्षणक्षयादि विषैक्षणिकर्ते विपरीत अक्षणिकका संशयादिरूप समारोप होय यातें ताका उपदर्शक नांही, तौ ताकूं कहिये – यह सिद्ध भई नील आदि विषै समारोप जो संशयादिक ताका विरोधी जो ग्रहण सो है लक्षण जाका ऐसा निश्चय होय है तिस
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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