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________________ १८० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित जो गऊपणां आदिकू सर्वथा नित्य एक रूप मानिये तौ क्रम यौगपद्य करि अर्थ क्रियाका विरोध आवै अर सर्व व्यक्तिनिविर्षे न्यारा न्यारा समस्तपणे वृत्तिका अयोग आवै । तातें अनेक है अर सदृशपरिणाम स्वरूप ही है, ऐसा तिर्यक् सामान्य कह्या ॥ ४ ॥ ___ आगैं दूसरा भेद जो ऊर्द्धता सामान्य ताकू दृष्टान्तसहित दिखा ___ परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्खता मुदिव स्थासा. दिषु ॥५॥ __याका अर्थ—पर कहिये पूर्वकालभावी अपर कहिये उत्तरकालभावी विशेष पर्याय तिनिविर्षे व्यापनेवाला जो द्रव्य सो उद्धता सामान्य है जैसैं स्थास कोश कुसूल आदि मृत्तिकाकी अवस्था विर्षे मृत्तिका व्यापी है । इहां सामान्य शब्दकी अनुवृत्ति लेणीं । ताकरि यह अर्थ होय है जो यह उद्धता सामान्य है सो कहा है ? द्रव्य है, सो ही परापरविवर्त्तव्यापी ऐसा विशेषणरूप कीजिये है, पूर्व अपरकालवर्ती तीन काल विषै अन्वयरूप है ऐसा अर्थ है, जैसैं चित्रका ज्ञान एक है ता विर्षे एक कालभावी जे अनेक अपने विर्षे आये चित्रके नील आदि आकार तिनिकी व्याप्ति है तैसैं एककै भी क्रम” होय, ऐसा परिणाम तिनिविर्षे व्यापीपणां है । ऐसा अर्थ जाननां ॥ ५॥ आरौं विशेषकै भी दोय प्रकारपणां है, ऐसैं दिखावै है; विशेषश्च ॥६॥ याका अर्थ-विशेष है सो भी दोय प्रकार है । इहां द्वेधा शब्दका अधिकार करि संबंध करनां ॥ ६ ॥ सो ही कहैं हैं,
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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