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________________ १७४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित स्याद्वादी जैनी जीव आदि पदार्थनिकै सामान्यविशेषस्वरूपपणां मानें हैं सो तिनि सामान्य विशेषका वस्तुतैं भेद अभेद हैं ते विरोध आदि आठ दोषके आवनेंतैं एक वस्तुविषै नांही संभव हैं, सो ही कहैं हैं— भेद अभेद दोऊ विधि प्रतिषेधस्वरूप हैं ते एक जो अभिन्न वस्तु ताविषै संभवें नांही, जैसें शीत उष्ण स्पर्श दोऊ एकविषै नांही संभवै तैसैं, ऐसैं तौ विरोध दूषण आया । बहुरि भेदका आधार अन्य अभेदका आधार अन्य, ऐसैं वैयधिकरण्य दूषण आया । बहुरि जिस स्वरूपकूं मुख्यकार भेद वर्तें है अर जिसकूं मुख्य कार अभेद वर्त्ते है ते दोऊ स्वरूप भिन्न हैं तथा अभिन्न हैं, बहुरि तहां भी भेदाभेदके कल्प तैं अनवस्था दूषण है । बहुरि जिस रूपकरि भेद है तिस ही रूप - करि भेद भी अभेद भी है ऐसें संकर दूषण है, बहुरि जिसकरि भेद है तिसकरि अभेद है जिसकरि अभेद है तिसकरि भेद है, ऐसे व्यतिकर दूषण है । बहुरि भेदाभेद स्वरूपपणां होतैं वस्तुका असाधारण आकारकरि निश्चय करनेंकूं असमर्थपणां है, तातें संशय दूषण है । तिस ही हेतु अप्रतिपत्ति दूषण है । तिस ही हेतुतैं अभाव दूषण है । ऐसें अनेकान्तात्मक वस्तु भी निश्चित नांही होय सकेँ हैं, ऐसें नैयायिक कहैं हैं । तहां आचार्य कहैं हैं : — ऐसैं कहनेवाले भी प्रतीतिस्वरूप कहनेवाले नांही जातैं प्रतीतिगोचर वस्तु होय तामैं विरोधका असंभव है। विरोध तौ जैसें दीखै नांही तैसें कहै तानें हैं, तहां जो देखनेमें आवैं तहां कहा विरोध ? भेदाभेदतैं एक वस्तु मैं दोऊ प्रगट दीखें हैं। इहां जो शीत उष्णस्पर्शका दृष्टांत कह्या सो धूपदहनका घट आदि एक अवयवकै शीत उष्ण स्वभावकी प्राप्तितैं विरोधका दृष्टान्त अयुक्त है, धूप दहनके घडे मैं शीत उष्ण दोऊ स्पर्श होय हैं। आदि शब्दकरि संध्याविषै प्रकाश तमका साथि अवस्थान होय है । एक वस्तुकै चल अचल रक्त अरक्त 1
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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