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________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १६५ विपक्ष जो नित्य ताविर्षे वाधकप्रमाण है । बहुरि नित्यकैं अनुक्रम करि तथा युगपत् अर्थक्रिया नांही संभवै है, नित्य जो एकही स्वभाव करि पूर्व अपर काल विषै होते दोय कार्य करै तौ कार्यका भेद करनेवाला नांही होय जातें नित्यकै एक स्वभावपणां है । जो नित्यकै एक स्वभावपणां होतें भी कार्यकै नानापणां है तौ अनित्य विर्षे कार्यके भेदतें कारणका भेदकी कल्पना निष्फल ही होय है । तैसा एक ही कोई कारण कल्पने योग्य होय है जाकरि एक स्वभावरूप एक ही करि समस्त चराचर वस्तु उपजै । बहुरि नैयायिक कहै-जो नित्य वस्तुकै स्वभावका नानापणां ही कार्यके भेदरौं मानिये है, तौ तहां पूछिये-जो ते स्वभाव तिस नित्य वस्तुकै सदा संभवते हैं तो कार्यका संकरपणां आवैगा जीव अजीव नर नारक एक काल उपजते ठहरेंगे ? बहुरि ते स्वभाव सदा नांही संभवते हैं तो तिनिकी अनुक्रमतें उत्पति होने विर्षे कारण कहा है, सो कह्या चाहिये ? तिस नित्यतैं ये हैं ऐसैं एक स्वभावतै उत्पत्ति होते तिनि स्वभावनिकै भेदके असंभवनेंतें सो ही कार्यनिकै युगपत् प्राप्ति संभवै । बहुरि कहै-जो नित्य कारणकै सहकारी कारण क्रम” होय तिस अपेक्षा करि ताके स्वभावनिका अनुक्रम करि सद्भाव है, तातैं तुम कह्या जो दोष; सो नाही । ताकू कहियेजो ऐसैं कहनां भी नीकै मिलै नांही, जो नित्य है अर समर्थ है ताकै परकी अपेक्षाका अयोग है। बहुरि सहकारी कारणकरि सामर्थ्य करणां मानिये तौं नित्यताकी हानि आवै, सहकारिनें नई सामर्थ्य उजाई तब नित्य कहां रह्या । बहुरि कहै-सहकारी कारण नित्यतै सामर्थ्य भिन्न ही उपजावै है यारौं नित्यताकी हानि नाही, तौ नित्य तौ अकिंचित्कर रह्या, कछू करनेवाला नाही, सहकारी करि उपजाई जो सामर्थ्य तिसहीकै कार्यकारणपणां ठहरया । बहुरि कहै नित्य अर
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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