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________________ १५४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित साहस है, जबरी है । वस्तुके भी संबंधीके भेदतें भेद न पाइये तक अवस्तुकै कैसे होय ? सो ही कहिये है, एक ही देवदत्त आदि नामा कोई पुरुष कडा कुंडल आदि पहेरे तब तिनि संबंधीनिकै भेदतें अनेकपणां होय नाही । बहुरि विषेश कहै है -संबंधीके भेदतै भेद भी कहूं होहु परंतु वस्तुभूत सामान्य माने विना अन्यापोह है आश्रय जाका ऐसा संबंधी है सो तुमार होने योग्य न होय है, सो ही कहिये है ---जो काबरा आदि विर्षे वस्तुभूत सारूप्य कहिये समानता ताका अभाव है तौ अश्व आदिका परिहार करि तहां ही तिनिका विशेषरूप यह गऊ है ऐसा नाम अरु ज्ञान कैसैं होय तारौं संबंधीका भेदकरि भेद चाहै है तौ सामान्य भी वस्तुभूत अंगीकार करनां योग्य है । बहुरि विशेष कहै है—जो अपोह शब्दार्थकी पक्ष विौं संकेत ही बणें नाहीं जारौं तिस अपोह के ग्रहणका उपायका असंभव है । तहां तिसका ग्रहण वि प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ नाही जातै प्रत्यक्षका तौ वस्तु विषय है, अन्यापोह तौ अवस्तु है । बहुरि अनुमान भी ताका ग्रहणका उपाय नांही जातें अनुमान तौ स्वभाव तथा कार्य वस्तुका लिंग होय तिस करि उपजै है, अपोह है सो तौ निरुपाख्य कहिये निःस्वभाव है तातें स्वभावलिंग नाही अर अर्थक्रियाकरि रहित है ता” कार्यलिंग नाही ॥ बहुरि विशेष कहै है—गऊ शब्दकै अगऊका अपोह कहनहारापणां होतें गऊ ऐसा शब्दका कहा अर्थ होय ? जातै विना जाण्यांकै विधि निशेधविषै अधिकार नाही है । जो कहै अगऊ की निवृत्ति गऊ शब्दका अर्थ है तौ इतरेतराश्रयनामा दोष आवैगा, अगऊका व्यवच्छेद तौ अगऊका निश्चय भयें होय बहुरि सो अगऊ गऊकी निवृत्तिस्वरूप है, बहुरि गऊ है सो अगऊका व्यवच्छेदरूप है ऐसैं इतरेतराश्रय दोष है । बहुरि अगऊ इस पदमैं भी गऊ ऐसा उत्तरपद है ताका अर्थ भी ऐसैं
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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