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________________ १५२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितहै कि प्रसज्य प्रतिषेधरूप है ? ऐसैं दोय पक्ष पूछिये । जहां विधिकी प्रधानता होय निषेध गौण होय तहां पर्युदासप्रतिषेध होय । इहां जाका निषेध करना होय ताके शब्दकै पूर्वं नकार ल्यावै, जैसे काहू. कह्या 'अब्राह्मणकू ल्याव ' तहां जानिये ब्राह्मणका तौ निषेध है अर अन्य वैश्यादिककी विधि है तिनिकू बुलावै है। बहुरि जहां विधिकी तौ अप्रधानता होय अर निषेधकी प्रधानता होय तहां प्रसज्य प्रतिषेध होय इहां क्रियाकी साथ नकार ल्यावै जैसे काहू. कह्या-'ब्राह्मणकुं न ल्याव ' तहां जानिये नाही ल्यावनेंकू कहै है, इहां अत्यंत निषेध जाननां । सो इहां अन्यापोह शब्दार्थविर्षे दोय पक्ष पूछि तहां कहै-पर्युदास प्रतिषेध है तौ गऊपणां ही नामान्तरकरि कह्या जातै अभावके अभावकै तौ अन्यभावका सद्भावपणां ही है, गऊ के अभावका अभाव कह्या तब गऊका ही अन्य नाम कह्या । बहुरि इहां पूछिये जो गऊ शब्दकै वाच्य अश्व आदिकी निवृत्ति है लक्षण जाका ऐसा अभाव कहा है । जो कहै अपनां स्वलक्षण जो क्षणिक निरन्वय तिसस्वरूप है, तो यह तौ वर्षे नाही जातें स्वलक्षण तौ सकल विकल्प अर वचन इनिके गोचरतें दूरवर्ती है । बहुरि कहै जो काबरापणां आदि व्यक्तिरूप है तो यह भी नांही है, जारौं बौद्ध शब्दकू सामान्यका वाचक कहै है सो काबरापणां आदि विशेषरूप व्यक्ति तिनिकू कहें शब्दकै सामान्यका वाचक कहनेका अभावका प्रसंग आवै है । तारौं समस्त जे गऊकी व्यक्ति तिनि विर्षे अन्वयकी प्रतीतिका उपजावनहारा अर तहां न्यारा न्यारा समस्तपणांकरि व्यक्तिनिवि वर्तमान ऐसा सामान्य ही गोशब्दका अर्थ है, ताहीका अपोह ऐसा नाम करतें तौ नाममात्र ही भेद होय है अर्थभेद तौ नाही । तातें आदिका पक्ष जो पर्युदासनिषेध सो तौ श्रेष्ट नांही । बहुरि दूसरा पक्ष जो प्रसज्यप्रतिषेध सो भी श्रेष्ठ नांही है जातें
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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