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________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १४५ क्यार्थ मानैं है । बहुरि मनु याज्ञवल्क्य आदि ऋषिनिकै श्रुतिका अर्थकै अनुसार स्मृतिके निरूपणविर्षे अन्य अन्य प्रकारपणां कैसैं होय । तातें प्रवाहपरिपाटीवि भी वेदकै अयथार्थपणां ही है । यातैं यह ठहरी जो अतीतानागतकालविर्षे वेदका कर्ता नाही । काल शब्दवाच्यपणां हेतु. करि ऐसैं कह्या सो भी अपने मतका निर्मूल करनेका हेतुपणांकरि विपरीत साधनतें यहु हेतु हेत्वाभास ही है । सो ही कहिये है; इहां श्लोक है, ताका अर्थ अतीत अनागत काल हैं ते वेदके ज्ञाताकार रहित हैं जाते काल शब्दका अर्थ है जे कालशब्दकरि कहिये ते ऐसे ही हैं जैसैं अबार का काल । बहुरि विशेष कहैं हैं कि कालशब्दका अर्थ अतीत अनागत कालका ग्रहण होतें होय सो तिनिका ग्रहण प्रत्यक्ष” होय नाही जातें ते अतीत अनागत काल इन्द्रियगोचर नाही ! अर अनुमानौं तिनिका ग्रहण होतें भी साध्यकरि तिनिका सम्बन्ध निश्चय करनेंकू नाही समर्थ हूजिये है जातै प्रत्यक्षतँ ग्रहण किया साधनकही साध्यका संबंध मानिये है, सो है नांही । बहुरि मीमांसक कालनामा द्रव्य भी नाही मानें है। बहुरि कहै-जो अन्यवादी काल मानें है तिनिकी ही मानि ले. करि तिनिकू कह्या है काल वेदक करि रहित है, ऐसा मानो–इनिकै व्याप्यव्यापकभाव है, सो काल व्याप्यकुं मानों हो तौ वेदकर्ताकरि रहितपणां व्यापककू भी मानों ऐसा प्रसंगसाधन दोष नाही । ताकू कहिये-जो परमैं तौ इहां साध्य साधन कहिये वेदके कर्ताकरि रहितपणांकै अर कालकै व्याप्यव्यापकपणांका अभाव है । अबार भी (१) अतितानागतौ कालौ वेदार्थज्ञविवर्जितौ । कालशब्दभिधेयत्वादधुनातनकालवत् ॥ हि. प्र. १०
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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