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________________ १०३ maa हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ॥२७॥ याका अर्थ-व्याप्तिावे. साध्य है सो धर्म ही है । याका अर्थ सुगम है यातै टीका नाही । इहां अर्थ जिस धर्माविर्षे जो साध्य साधिये ताकू तिस धर्मीका धर्म कहिये । ऐसा साध्य जो धर्म सो ही साधने योग्य है । व्याप्ति साध्यसाधनहीकै होय है ॥२७॥ ___ आU धर्मीकै भी साध्यपणां होतें कहा दोष है, ऐसैं पूछे सूत्र कहै अन्यथा तद्घटनात् ॥२८॥ याका अर्थ-जो धर्मीकू साध्य करिये तो धर्मीकै अर साधनकै व्याप्ति बणें नाही । इहां अन्यथा शब्द है सो पहले व्याप्तिविषं साध्यधर्म कह्या तिसतै विपर्यय अर्थमैं है, तातें ऐसैं कहनां जो धर्मीकै साध्यपणां होतें व्याप्ति बणे नाही । यह सूत्र पूर्वसूत्रका हेतुरूप है । धूमके दर्शन” सर्व जायगां पर्वत अग्निमान है ऐसी व्याप्ति नाही करी जाय है जाते यामैं प्रमाण विरोध आवै है ॥ २८॥ ___आरौं बौद्धमती कहै है-जो अनुमानविर्षे पक्षका प्रयोगका असंभव है तातै ' प्रसिद्धो धर्मी' इत्यादि वचन अयुक्त हैं जाते तिस धर्मीकै सामर्थ्यलब्धपणां सामर्थ्यतै जाणिये है, बहुरि जाणे पीछे भी ताका वचन कहनां सो पुनरुक्तताका प्रसंग आवै है, जातें ऐसा कह्या जो अर्थतें आय प्राप्त हूवा तौऊ ताका फेरि वचन कहनां सो पुनरुक्त है, ऐसैं सौगतनैं पक्ष करी ताका निराकरणकू आचार्य सूत्र कहैं हैं; साध्यधर्माधारसन्देहापानोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ॥ २९॥ याका अर्थ-पक्ष है सो साध्य जो धर्म ताका आधार है तातें साध्यकू साधिये तब ऐसा सन्देह पड़े जो कौंन जायगा इस साध्य...
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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