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________________ अथ चतुर्थ-परिच्छेद । दोहा। भेदआदि एकान्त तम, दुरि कियो जिनमूर ॥ वचन किरणते तास पद, नमूं करम निरसूर ॥१॥ अब यहां वैशेषिकमती भेद एतान्त पक्षकरि अपना मत थापै । ताका पूर्व पक्ष ऐसे है कार्यकारणनानात्वं गुणगुण्यन्यतापि च । सामान्यतद्वन्यत्वं चैकान्तेन यदीष्यते ॥ ६१ ॥ अर्थ-कार्यकें अर कारणके नानापना, बहुरि गुणकें अर गुणीके अन्यता कहिये भेदरूप नानापना, बहुरि सामान्यकें अर — तद्वत् ' कहिये विशेषनिकें अन्यपना है ऐसें जो एकान्तकरि मानिये । ऐसा वैशेषिकमती पूर्वपक्ष करै ताका उत्तर अगली कारिकामें होगा । __ यहां कार्यके ग्रहणतैं तो कर्मका तथा अवयवीका अर अनित्यगुण तथा प्रध्वंसाभावका ग्रहण है । बदुरि कारणके कहनेतें, समवायी समवाय तथा प्रध्वंसके निमित्तका ग्रहण है । बहुरि गुणरौं नित्यगुणका ग्रहण है अरगुणी कहने तैं गुणके आश्रयरूप द्रव्यका ग्रहण है । बहुरि सामान्यके ग्रहण" पर, अपर जाति रूप समान परिणामका ग्रहण है । तथैव, तद्वत् , वचन" अर्थरूप विशेषनिका ग्रहण है । ऐसें बैशेषिकमती मानै है जो इन सबके भेद ही है, ये नाना ही हैं, अभेद नाहीं हैं। ऐसा एकान्तकरि मानै है। ताकू आचार्य कहैं हैं कि ऐसें मानने” दूषण आवै है ॥६१॥ आ०-५
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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