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________________ आप्त-मीमांसा। उपज्या तानैं हन्या । बहुरि जो चित् हिंसनेका अभिप्राय करनेवाला चित्त तथा हिंसनेवाले चित्तें ऐसैं दोऊन” अन्य उपज्या ता चितकै हिंसाका फल बंध था सो भया । बहुरि जिसके बंध भया सो तो नष्ट भया तब अन्यचित् सो बंधतै छुट्या ।। ऐसैं हिंसाका अभिप्राय है सो अन्यनैं किया हिंसा अन्यनैं करी, अन्य बँध्या अर अन्यः छूठ्या ऐसैं कियेका नाश अर विना किये कहनेका प्रसंग आवै है सो हास्यका स्थान है । बहुरि संतान तथा वासना कहै तो परमार्थतें यह भी क्षणिकवादिक नाही बने है बहुरि स्याद्वादीकै कथंचित् सर्वभाव निर्बाध संभवै है ॥ ५१ ॥ ' आज क्षणिक वादीनिकें इसही अर्थकू विशेषकरि कहि दूषण दिखाएँ हैं अहेतुकत्वान्नाशस्य हिंसाहेतुने हिंसकः। चित्तसंततिनाशश्च मोक्षो नाष्टाङ्गहेतुकः ॥५२॥ अर्थ-क्षणक्षय एकान्तवादी नाशकू अहेतुक कहैं हैं । जो वस्तु विनसें है सो स्वयमेव विना हेतु विनसै है । सो ऐसा कहते हैं तो जो हिंसा करनेवाला हिंसक है सो हिंसाका हेतु न ठहस्या । बहुरि चित्तसंतानका मूल” नाश होना सो मोक्ष मानें है ताकू आठअंग हेतु तैं भया कहै है सो न ठहरै । मोक्षका अष्टाङ्गहेतु सभ्यक्त्व, संज्ञासंज्ञी, वचनकायका व्यापार, अन्तर्व्यायाम, अजीव, स्मृति, ध्यान और समाधि ये हैं । तहां सभ्यक्त्व कहिये बुद्ध धर्मका अंगीकार करना, संज्ञासंज्ञी कहिये वस्तुका नाम जानना, वचन कायका व्यापार, अन्त ायाम कहिये श्वासोश्वास पवनका निरोध करना, अजीव कहिये जीवका अभाव, स्मृति कहिये पिटकत्रय शास्त्रकी चिंता, ध्यान कहिये
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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