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________________ आप्त-मीमांसा। __ आगैं वादी कहै-जो पृथक्त्व-एकान्त निर्बाध नाहीं तातें अद्वैत एकान्तकी तरह यह भी मति होहु । किन्तु तिन दोऊनका एकरूप एकान्त श्रेष्ठ है ऐसैं मानते वार्दाकू तैसैं सर्वथा — अवक्तव्यतत्त्व है' ऐसैं आचार्य कहैं हैं विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।। अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ ३२ ॥ अर्थ-जे स्याद्वादनयके विद्वेषी हैं तिनकै जैसैं अस्तित्व, नास्तित्त्व, एकत्त्व, अनेकत्त्व, परस्पर विरोध” नाही तिष्ठै हैं तैसें ही पृथक्त्व, अपृक्त्वभाव भी परस्पर विरोधस्वरूप हैं सो एकस्वरूप नाहीं ठहरै हैं जातें यह भी प्रतिषेधस्वरूप है। जो दोय विरुद्ध धर्मरूप होय सो सर्वथा एकान्तपक्षमैं एकरूप न ठहरै । बहुरि जो सर्वथा अवक्तव्यतत्त्व मानें ताकै भी " तत्त्व अवक्तव्य है " ऐसा वचन भी कहना युक्त न होय । तातै अवक्तव्य एकान्त मानना भी श्रेष्ठ नांहीं ॥ ३२ ॥ ___ आगैं एकत्त्व आदिक एकान्तके निराकरणकी सामर्थ्यतै अनेकान्ततत्व सिद्ध भया तौहू तिसके ज्ञानकी प्राप्ति दृढ़ करनेकै अर्थ तथा कोई अनेकान्ततत्त्वविर्षे अन्य प्रकार आशङ्का करै ताकै निराकरणकै अर्थ, तिसके एकत्त्वानेकत्त्वके सप्तभंग प्रकट करनेके इच्छुक आचार्य तिसके मूल दोय भंगस्वरूपकू जीवादिवस्तुकै कहैं हैं अनपेक्षे पृथक्त्वैक्ये ह्यवस्तु द्वययोगतः । तदेवैक्यं पृथक्त्वं च स्वभेदैः साधनं यथा ॥ ३३ ॥ अर्थ-हि कहिये निश्चयतें पृथक्त्व अर एकत्व हैं ते परस्पर अपेक्षारहित होय तौ दोऊ ही अवस्तु ठहरै [ जाते अवस्तु ठहरै ] जातैं दोऊकै अवस्तुपणांका साधक परस्पर निरपेक्षपणां हेतु है । एकतत्त्वकी अपेक्षा विना पृथक्त्व अवस्तु है बहुरि पृथक्त्वकी अपेक्ष ।
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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