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________________ अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम् सहेत . सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । . असदेव विपर्यासान चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ १५ ॥ - अर्थ-स्वरूपादि चतुष्टयात् कहिये अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप चतुष्टयतें सर्व वस्तु सत् ही हैं ऐसे लौकिक जन तथा परीक्षक जन ऐसा कौन है जो नाहीं इष्ट करै है-सव ही मानै है । बहुरि विपर्यासात् कहिये परके द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप चतुष्टयतें असत् ही है ऐसैं सर्व ही मान हैं । इहां सर्व वस्तु कह.” चेतनाचेतन द्रव्य तथा पर्याय तथा भ्रान्ताभ्रान्त तथा आपकै इष्ट तथा अनिष्ट इत्यादि जाननें। जातें जो प्रतीतिमैं आवै ताका लोप करनेका असमर्थपणां है । बहुरि कुनयकरि विपर्यस्त भई है बुद्धि जाकी ऐसा कोई दुर्मति नाही इष्ट करें-न मा. सो काहू ही इष्ट तत्ववि. नाही तिष्ठै है जारौं वस्तुविर्षे जो वस्तुपणां है सो अपने स्वरूपका तौ उपादान कहिये ग्रहण अर परके स्वरूपका अपोहन कहिए त्याग इन दोऊ व्यवस्थाकरि ठहरै है। जो अपने स्वरूपकी ज्यौं पररूपकरि भी सत्व मानिये तो चेतनादिककै अचेतनादिकपणांका प्रसंग आवै। बहुरि पररूपकी ज्यौं स्वरूपकरि भी असत्व मानिये तो सर्वथा शून्यपणांकी प्राप्ति आवै । तैसैं ही स्वद्रव्य की ज्यौं परद्रव्यकरि भी सत्व मानिये तौ भिन्नद्रव्य न्यारे न्यारे न ठहरै बहुरि परद्रव्यकी ज्यौं स्वद्रव्यकरि भी कोईकै असत्व मानिये तो सत्का द्रव्याश्रय न ठहरै। तैसे ही अपने क्षेत्रकी ज्यौं परक्षेत्रौं भी सत् मानिये तौ काहूका न्यारा क्षेत्र न ठहरै। बहुरी परक्षेत्रकी ज्यौं अपने क्षेत्रतें भी असत् मानिये तो क्षेत्र विनां द्रव्य ठहरै। तैसैं ही अपने कालकी ज्यौं परकालतें भी सत्व मानिये तो अपना अपना मान्या काल न ठहरै । बहुरि परकालकी ज्यौं अपनैं कालकरि भी असत्व मानिये तो वस्तुका सकल कालवि. असंभवीपणां ठहरै । ऐसैं वह दुर्मति कहां तिष्ठै अपनां
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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