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________________ अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम् अर्थ-अन्यापोह कहिए अन्यस्वभावरूप वस्तुतें अपने स्वभावका भिन्नपणां याकू इतरेतराभाव कहिये, याका व्यक्तिक्रम कहिये लोपताकै होतें तत् कहिये सर्व वादीनिनैं मान्यां जो वस्तुका भिन्न भिन्न स्वरूप सो सर्व एक-सर्वात्मक होय यह दोष आवै है । आप न मान्यां ऐसा परका मान्यां तत्व सो भी आपका मान्यां ठहरै ऐसैं सर्वात्मक एक ठहरै । बहुरि अपने समवायी पदार्थकै अन्य समवायी पदार्थवि. समवाय होना सो अत्यन्ताभावका लोप है ताकू होतें सर्ववादीनिका इष्टतत्व व्यपदेश कहिये नाम ताकू नाही पावै है । अपनां मान्यां स्वरूपवि. परका मान्यां स्वरूपका भी नामका प्रसंग आवै है। आपकै इष्ट तथा अनिष्ट तत्वविर्षे तीन काल विभी विशेषका मानना न ठहरै है, यह दोष है । इहां कोई पूछ-प्राग्भाव प्रध्वंसाभावमैं अर इतरेतराभाव अर अत्यंताभावमैं विशेष कहा है ? तहां उत्तर-जो कार्यद्रव्य घटादिक ताके पहलै अवस्था थी सो तो प्राग्भाव है। बहुरि कार्यद्रव्यके पीछे जो अवस्था होय सो प्रध्वंसाभाव है । बहुरि इतरेतराभाव है सो ऐसे नाहीं है जो दोय भावरूप वस्तु न्यारे न्यारे युगपत दीसै तिनकै परस्पर स्वभावभेदकरि वाका निषेध वामैं वाका निषेध वामैं इतरेतराभाव है यह विशेष है सो यह तौ पर्यायार्थिक नयका विशेषपणां प्रधानपणांकरि पर्यायनिकै परस्पर अभाव जाननां । बहुरि अत्यंताभाव है सो द्रव्यार्थिकनयका प्रधानपणांकरि है, अन्य द्रव्यका अन्यद्रव्यविर्षे अत्यन्ताभाव है, ज्ञानादिक तौ पुद्गलमैं काहू कालविर्षे होय नाहीं। बहुरि रूपादिक जीव द्रव्यविर्षे काहू कालमैं होइ नाहीं ऐसे इतरेतराभाव अर अत्यन्ताभाव यह दोऊ अभाव न मानिये तो सर्व तत्वका एकतत्व होइ जाय अर अपणां परका इष्टतत्वकी व्यवस्था न ठहरै, ऐसैं दोष आवै है। तातैं अभावकू कथंचित् भावकी ज्यों वस्तुका धर्म माननां योग्य है ॥ ११ ॥
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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