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________________ १ अनन्तकीर्ति प्रस्थमालायाम् मामैं हैं। तहां मूल प्रकृति एक विकार रहित ॥ १॥ एक महान् सो उत्पत्तिविमाश पर्यन्त तिष्टनेवाली बुद्धि ॥ १॥ तिस बुद्धिर्ते उपजे ऐसा अहंकार ॥ १॥ गंध रूप रस स्पर्श और शब्द ऐसे तन्मात्रा पांच ॥ ५ ॥ ऐसें यह सात प्रकृति की विकृति, बहुरि बुद्धिइन्द्रिय ॥ ५॥ कर्म-इन्द्रिय ॥ ५॥ तन्मात्रातै भये पांचमूत पृथ्वी, अप, तेज बायु, आकाश ऐसें ॥ ५॥ अर एक मन ऐसैं षोडशक याकू विकार कहै हैं । बहुरि प्रकृति-विकृति” रहित एक पुरुष ऐसैं पर्चास भये इनका अस्तित्व ही है, नास्तित्व नाही, ऐसैं भाव एकान्त है । सो ऐसा मानैं चार प्रकारका अभाव है ताका लोप होइ तब इतरेतराभावांका लोपौं सर्वात्मक कहिये पच्चीस तत्व एक तत्त्व ठहरै सब भेद कहनेका विरोध आवै । बहुरि अत्यन्ताभावका लोपलें प्रकृतिकै पुरुषका अत्यन्त ( अभाव ) है ताकू न मानिये तब प्रकृत्तिकै पुरुषरूपपणा आवै तब प्रकृत्ति-पुरुषका भिन्न लक्षण कहनेका विरोध आवै । बहुरि ग्राम्भावके लोपः प्रकृतिौं महान् भया, महान्त अहंकार भया, अहंकारतें षोडशक गण भया, पंच तन्मात्राते पंचमहाभूत भये, ऐसैं सृष्टिका उपजनां कहनां निषेद्या जाय तब ये सर्व अनादि ठहरै। बहुरि प्रध्वंसाभावके लोपौं ये महान् आदिकनिकू विनाशमान अनित्य कहै ते सर्व नाशरहित ठहरै तब प्रलयका कहनां मिथ्या ठहरै । पृथ्वी आदि महाभूत तौ पांचतन्मात्रामैं लय होय है । बहुरि षोडशक गण अहंकारमैं लय होय है, अहंकार महान्मैं लय होइ है, महान् प्रकृतिमैं लय होय है ऐसैं संहारका कहनां बिगड़े है। ऐसैं सांख्यमती तत्वका स्वरूप कहै है सो यहु तत्वका निजस्वरूप नाही तातैं अन्य स्वरूप है। ऐसैं ही अन्योन्याभाव भी न मानें एकान्त वादीनिके मतमैं दोष आवै १ प्रकृति ( कारण) और विकृत ( कार्य ) इत्यनेन पाठेन भाव्यं ।
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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