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________________ आप्त-मीमांसा | ११५ आगे कहें हैं जो विधि एकान्तकी ज्यों निषेध एकान्तका भी निराकरण तो विस्तार करि पहले कह ही आए बहुरि फिर भी निषेधही बचनका अर्थ कहनेवाले वादीकी आशंका दूर करें हैं; सामान्यवाग्विशेषे चेन शब्दार्थो मृषा हि सा । अभिप्रेतविशेषाप्तेः स्यात्कारः सत्यलाच्छनः ॥ ११२ ॥ अर्थ – सामान्य वाणी है सो चेत् कहिए जो विशेष विषै शब्दार्थ स्वरूप नाहीं हैं । विशेषकूं न जानावै तो ऐसी वाणी मिथ्या ही है । बहुरि अभिप्रेतमें लियाजो विशेष ताकी प्राप्तिका स्यात्कार है । सो सत्यार्थ लक्षण कहिए चिन्ह है । यह चिन्ह अभिप्रायमें तिष्टते विशेष कूं जाना है । यहाँ ऐसा जाननाजो बोद्धमती अन्यापोह कहिए अन्यके निषेधमात्र वाक्यका अर्थ कहै है । सो अन्यापोह कुछ वस्तु है नाहीं । वस्तुतो सामान्य विशेषात्मक है । सो सामान्यकूं कहै तंब विशेष वक्ताके अभिप्रायमें गम्यमान है । ताकूं भी कहनेवाला सामान्य वचनही है । जातैं याकेँ स्यात् पद लागे हैं । सो अभिप्रेत विशषके जाननेका यह स्यात्कार सत्यार्थ चिन्ह है । बहुरि अभावकूं तौ कहै । अर भावकूं न कहै ऐसा वचनतौ अनुक्त समान है ॥ ११२ ॥ । 1 आगैं हैं हैं जो ऐसा स्याद्वादका निश्चय किया तातैं स्याद्वादही सत्यार्थ है । अन्यवाद सत्यार्थ नाहीं है । ऐसे भगवान समन्तभद्रस्वामी अतिशयरूप कहैं हैं । विधेयमीप्सितार्थाङ्ग प्रतिषेध्याविरोधि यत् । तथैवादेयत्वमिति स्याद्वादसंस्थितिः ॥११३॥ अर्थ-यथा कहिए जैसें जो प्रतिषेध्य पदार्थ सौ अविरोधी विधेय पदार्थ है । सो यह ईप्सितार्थंग कहिए आपके बांछित अभिप्रेत पदार्थका अंगभूत है तैसें ही आदेय हयत्व कहिए ग्रहण करने योग्य अर त्याग
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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