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________________ आप्त-मीमांसा। . अर्थ-तीन काल सम्बधी जे नय अर उपनय तिनका एकांत तिनका अविश्वग्भाव स्वरूप जो सम्बध ऐसा समुच्चकहिए समुदाय एकता सो द्रव्य है । सो कैसा है अनेकधा कहिए अनेक प्रकार है । तहाँ नयका स्वरूप तौ पहले कहा सो है ते द्रव्य पर्यायके भेदतै तथा तिनके उत्तर भदतै अनेक है । बहुरि तिन नयन की शाखा प्रति शाखा अनेक हैं । ते उपयन हैं । बहुरि एक एक धर्मका ग्रहण करना सो तिनका एकान्त है । तिनका समुच्चय ऐसा जो धर्म अपना आश्रय रूप धर्माकू छोड़ि अन्य धर्मी में जाना ऐसा अशक्य विवेचनपणां रूप समुदाय सो इहाँ भेदाभेद कथंचित् जानना । सर्वथा भेदाभेद में विरोध है । ऐसें त्रिकालवर्ती नय उपनयका विषयभूत पर्यायविशेषनिका समूह द्रव्य है सो एकानेकस्वरूप वस्तु है । ऐसा सम्यक् प्रकार करा हुआ वणै हैं ॥ १०७ ॥ आगें परवादीकी आशंका विचारि अर दूर करते संते आचार्यकहें हैं। मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन मिथ्यकान्ततास्ति नः । निरपेक्षा नयाः मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥ १०८॥ अर्थ-इहाँ अन्यवादी तर्क करै जो तुमने वस्तुका स्वरूप नय और उपनयका एकान्तका समूहळू द्रव्य करि कह्या सो नयनका एकान्तकुं तो तुम मिथ्या कहते आवो हो सो मिथ्या नयनका समूहभी मिथ्याही हो य ताकू आचार्य्य कहैं हैं । जो मिथ्या नयनका समूह है सो तौ मिथ्या ही है । बहुरि हमारे जैनीनि के नयनके समूह हैं सो मिथ्या नाहीं। जातै ऐसा कह्या हैं । जे परस्पर अपेक्षा रहित नय हैं ते तो मिथ्या हैं। बहुरि जे परस्पर अपेक्षासहित नय हैं । ते वस्तु स्वरूप हैं। ते अर्थ क्रियाकू करें ऐसा वस्तुकू साधै हैं निरपेक्षपणां है सो तो प्रतिपक्षी धर्मका सर्वथा निराकरण स्वरूप है। बहुरि प्रतिपक्षी धर्मरौं उपेक्षा
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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