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________________ अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम् भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिह्नवः । बहि प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ॥ ८३।। अर्थ-भावप्रमेय कहिये ज्ञान है ते सर्व ही भेदनि सहित स्वसंवेदन रूप है अपना ज्ञानकाहू क्षयकू जानूं । ज्ञान मात्र करि तौ अपनें आस्वाद मैं आवै है तिसकी अपेक्षा तौ सर्व ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष प्रमाण स्वरूप है । प्रमाणाभास किछू भी नाहीं है । बहुरि बाह्य प्रमेय की अपेक्षा कहूं प्रमाण है कहूं अप्रमाण है । प्रमाणाभास है तहां विसंवाद होय वाधा आवै तहां तौ प्रमाणाभास है बहुरि जहां निरबाध होय तहां प्रमाण है । जातैं एक ही जीव के ज्ञान के आवरण के अभाव सद्भाव के विशेष तैं सत्य असत्य संवेदन परिणाम की सिद्धि है । और ते कहिये तुम्हारे अर्हत के मत वि सिद्धि होय है ॥ ८३ ॥ ___ आगै जीव ऐसा शब्द है । सो याका बाह्य अर्थ भी है तहाँ चार्वाक आदि मतवाला कहै जो जीव ही नाहीं तौ जीव ऐसा शब्द कैसैं कह्या । जीवका ग्रहण करनेवाला प्रमाण नाहीं, ऐसे कहने वाले दूँ जीव का ग्राहक प्रमाण का सद्भाव दिखाएँ हैं; जीवशब्दः स वाह्यार्थःसंज्ञात्वाद्धेतुशब्दवत् । ___ मायादिभ्रान्तिसंज्ञाश्च, मायायैः स्वैः प्रमोक्तिवत् ॥८४॥ अर्थ-जीव ऐसा शब्द है सो बाह्य पदार्थ सहित है इस शब्द का अर्थ जीव वस्तु है । जातें यह शब्द संज्ञाहै. नाम है जे संज्ञा हैं अर नाम हैं ते बाह्य पदार्थ बिना होय नाहीं । जैसे हेतु शब्द है सो बाह्य याका अर्थ है । वादी प्रतिवादी प्रसिद्ध है । बहुरि यहां कोई कहै माया आदि भ्रांति की संज्ञा है। तिनका बाह्य पदार्थ कहा है ताकू कहिये मायादिक भ्रान्तकी संज्ञा हैं। ते भी अपने स्वरूप
SR No.022429
Book TitleAapt Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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