________________
नयचक्रसार हि० अ०
अर्थ-अब गुणकी सप्तभंगी कहते हैं जैसे-ज्ञान गुण है वह ज्ञानगुणरूप से अस्ति है और दर्शनादि स्वजाति एक द्रव्यव्यापी गुण तथा स्वजातिय भिन्न जीव व्यापी ज्ञानादि गुण और पर द्रव्य में रहा हुवा अचेतनादि धर्मकी नास्तिता है. इस तरह पंचास्तिकाय के प्रत्येक अस्तिकाय में अनन्त सप्तभंगी प्राप्त होती है. स्याद्वाद परिणाम को सप्तभंगी कहते हैं.
_अगर वस्तु में अस्तित्व धर्म या नास्तित्व धर्म को न माने तो कौनसा दोष उत्पन्न होता है ? वस्तु में अस्तिपना न मानने से गुणपर्याय का अभाव होता है और गुण के अभाव से पदार्थ शून्य भावको प्राप्त होता है । और नास्तित्व धर्म न मानने से किसी समय वस्तु परवस्तुपने. अथवा परगुणपने या जीव अजीवपने, अजीव जीवपने प्राप्त हो यह शंकरता दोष उत्पन्न होता है । व्यंजकता अर्थात् प्रगटता योग से अस्ति धर्म स्फुरायमान होता है परन्तु जिस धर्मकी सत्ता अस्ति नहीं है वह स्फुरायमान भी नहीं होता और जो नास्तिपना न माने तो असत्तापने स्फुरायमान होता है और जब असत्ता स्फुरायमान होजाय तब द्रव्य अनिश्चयात्मक होजाय इस वास्ते सब भाव अस्ति, नास्तिमयी है. अब व्यंजकता का दृष्टान्त कहते है. जैसे-नये अर्थात् कोरे कुंभ में सुगन्धताकी सत्ता है तभी पानी के योग से वासना प्रगट होती है. वस्त्रादि में उस धर्मकी सत्ता नहीं है तो उसकी प्रगटता भी नहीं हैं. एवं सर्वत्रापि.