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________________ (३६) नयचक्रसार हि० अ० अर्थ-एक देश में स्वपर्याय से अस्तिता अर्पित की जाय और एक देश में परपर्याय की नास्तिता. ये दोनों पर्याय समकाल-एक समय में एक साथ रहे हुवे हैं. परन्तु वचने से नही कहे जाते. इस अपेक्षा से स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य यह सातवां भंग कहा. यह सप्तभंगी अर्पित, अनर्पित अर्थात् आरोप, अनारोप से कही हैं. . __ तत्र जीवः स्वधर्मे ज्ञानादिभिः अस्तित्वेन वर्तमानः तेन स्यात् अस्तिरूपः प्रथम भङ्ग, अत्र स्वधर्मा अस्तिपदगृहीताः शेषनास्तित्वादयो धर्माः अवक्तव्यधर्माश्च स्यात् पदेन संगृहीताः। अर्थ-जीव स्वधर्म विषय ज्ञानादि पर्यायों से अस्तिपने है इस वास्ते स्यातस्तिरूप प्रथम भंग हुवा. यहां स्वधर्म से अस्तिपद का ग्रहण, शेषनास्तित्वादि धर्म और अवक्तव्य धर्म का स्यात् पद से ग्रहण होता है. विवेचन-अब सप्तभंगी का स्वरूप कहते हैं. जो एक द्रव्य में, एक गुण में, एक पर्याय में और एक स्वभाव में सात २ भंग सदा परिणत है. स्याद्वाद रत्नाकरावतारि का में भी कहा है.-" एक स्मिन् जीवादौ अनन्तधर्मापेक्षया सप्तभंगीनामानन्त्यं" इस क्चन से तथा · अत्थिजीवे' इत्यादि सूयगडांग सूत्र की गाथा से जान लेना । अब पहिला भंग लिखते हैं,-जीव के गुणपर्यायी समुदाय का जो आधार वह जीव का स्वद्रव्य है, शानादि गुण का अवस्थान असंख्यातप्रदेशरूप वक्षेत्र है, अगुरु
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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