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________________ (१३१) (२) संग्रहनयवाला कहता है असंख्यात प्रदेशी है वह जीव अर्थात् इस नयवालेने एक आकाश द्रव्यको छोडके शेष सव द्रव्य जीव में ग्रहण किये. नयस्वरूप. (३) व्यवहारनयवाला कहता है. जो कामादि विषय या पुन्यकी क्रिया करे वह जीव इस नयवालेने धर्मास्तिकायादि तथा सर्व पुगलों को छोड़ा | परन्तु पांच इन्द्री, मन, लेश्या, वे पुद्गल जीवमें ग्रहण किये क्योंकि विषयग्राही इन्द्री है वह जीव से पृथक् नहीं है. (४) ऋजुसूत्रनयवाला कहता है. उपयोगवान है वह जीव इसने इन्द्र आदि पुगलो को ग्रहण नहीं किया परन्तु ज्ञान अज्ञान का भेदभाव नहीं माना किन्तु उपयोग सहित को जीव माना है. (५) शब्दनयवाला कहता है. भावजीव है वहीं जीव है किन्तु नाम, स्थापना, द्रव्य निक्षेप को वस्तु रूप नहीं मानता. ऋजुसूत्र नय चारोनिक्षेप संयुक्त को वस्तु मानता है. शब्दन के - बल भाव निक्षेपग्राही है. (६) समभिरूढनयवाला कहता है. ज्ञानादि गुण संयुक्त है वह जीव है इस नयनेवालेने मति श्रुतिज्ञान जो साधक अवस्थाका गुण है वे सब जीवमे सामिल किये. (७) एवंभूतनयवाला कहता है. अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र शुद्ध सत्तावाला है वह जीव इस नयवालेने सिद्धावस्था के गुणो को ग्रहण किया | इति नयाधिकारः
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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