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________________ नयस्वरूप. (१२९) अंशग्राही नैगमः, सत्ताग्राही संग्रहः, गुणप्रवृत्तिलोक प्रवृत्तिग्राही व्यवहारः, कारणपरिणामयाही ऋजुसूत्रः, व्यक्तकार्यग्राही शब्दः, पर्यायान्तरभिन्नकार्यग्राही समभिरूढा, तत् परिणमनमुख्यकार्यग्राही एवंभूतः, इत्याद्यनेकरुपो नयप्रचा. रः। " जावंतिया वयणपहा " तावंतिया चेव हुंति नयवावा" " इति वचनात् उक्तो नयाधिकारः । अर्थ--पूर्व २ नयप्रचुर विस्तारवाली है अर्थात् नैगमनय का विस्तार बहुत है इससे पराउपरकीनय परिमित विषयि है अर्थात् न्यून विषयि है. क्योंकि सत्तामात्र ग्राही संग्रहनय है याने अस्ति सत्ता ग्राही संग्रह नय है. और नैगमनय सद्भाव अथवा संकल्परूप असद्भाव सवका प्राही है. अथवा सामान्य विशेष दोनो धर्मग्राही है. इस वास्ते नैगम नय को प्रचुर विषयी कहा है, संग्रहनय सत्तागत सामान्य विशेष उभयग्राही है, व्यवहारनय सत् एक विशेषग्राही है इस लिये संग्रहनयसे व्यवहारनय का विषय कम है. और व्यवहारनयसे संग्रहनय का विषय अधिक है. ऋजुसूत्रनय वर्तमान विशेष धर्मग्राही है. व्यवहारनयसे ऋजुसूत्रनय कालविषय ग्राहक है इस लिये व्यवहारनयसे ऋजुसूत्रनय अल्प विषयी है. शब्दनय काल, वचन, लिंग से विवेचन करता हुवा अर्थप्राही है. और ऋजुसुत्रनय वचन लिंग से भेदपने नहीं करता इसवास्ते ऋजुसूत्रनय से शब्दनय अल्पविषयि है ऋजुसूत्रनय इससे अधिकविषयि है. शब्दनय सब पर्यायो में से एक पर्याय प्राही
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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