________________
(११६)
नयचक्रसार हि० अ० वस्तु में शब्दार्थपने की प्राप्ति नहीं है. वह वस्तु वस्तुरूप नहीं है। जिस शब्दार्थ में एक पर्याय भी न्यून हो उस वस्तु को एवंभूतनय वस्तुपने नहीं मानता. इसवास्ते शब्दनय तथा समाभरूढनयसे एवंभूतनय विशेषान्तर है.
एवंभूतनय घट स्त्रीके मस्तक परहो पांनी लानेकी क्रिया निमित मार्ग में आताहो पानी से संयुक्त हो उसको घट मानता है. परन्तु घरके कौनेमें रक्खा हुवा घट है उसको घटपने नहीं मानता क्यो कि वह घटपने की क्रिया का अकर्ता है. जो स्त्री के मस्तक पर चढा हो चेष्टा सहित हो उसीको घट शब्द से बुलावे अन्यथा घट नहीं कहता. जैसे-सामान्य केवली जो ज्ञानादि गुण पने समान है उसको समभिरूढनय अरिहन्त कहे परन्तु एवंभूतनय जो समोवसरणादि अतिसय सम्पदा सहित. इन्द्रादि से पूजासत्कार सहित हो उसी को अरिहन्त कहे अन्यथा नहीं कहता, वाच्य वाचक की पूर्णता को मानता है इति एवंभूत नय स्वरूप.
यह सातों नय का स्वरूप विशेषावश्यक सूत्र के अनुसार कहा है. इसमें नैगम के ७, संग्रह के ६ या १२, व्यवहार के ८ या १४, ऋजुसूत्र के ४ या ६ शब्द के ७, समभिरूढ के २,
और एवं भूतनय का, १ भेद इस तरह सब भेदों की व्याख्या की है. ग्रन्थान्तर में सात सो भेद भी कहे हैं.। .... ॥ स्याद्वादरत्नाकरात् नयस्वरूपः ॥
. एवमेव स्याद्वादरत्नाकरात् पुनर्लक्षणत उच्यते नीयते येन श्रुताख्यप्रामाण्यविषयीकृतस्यार्थस्य शस्तादितरांशौदासीन्यतः