________________
(१०४)
नयचक्रसार, हि० अ० वमक्कियं सव्वगं च सामानं* एतद् महासामान्यं गवि गोत्वादिकमवान्तरसामान्यमिति संग्रह.
अर्थ-संग्रह नय का स्वरूप कहते है. सामान्यसे सब द्रव्यों में मुख्य व्यापक नित्यत्वादि सत्तारूप जो धर्म रहा हुवा है उसके संग्रहक को संग्रह नय कहते है जिसके दो भेद है. ( १) सामान्य संग्रह ( २ ) विशेष संग्रह; सामान्य संग्रह के दो भेद. (१) मूल सामान्य ( २ ) उत्तर सामान्य. मूल सामान्य संग्रह के आस्तित्वादि छे भेद है. जिसकी व्याख्या पहिले कर चुके है.
और उत्तर सामान्य संग्रह के दो भेद है. ( १ ) जाति सामान्य (२) समुदाय सामान्य. जैसे-गाय के समुदाय में गोत्वरूप जाति है, घटमें घटत्व और वनस्पति के समुदाय में वनस्पतिपना यह जाति समुदाय है. और आंब के समुह को अंबबन कहना, मनुष्य के समुह को मनुष्यगण इसको समुदाय सामान्य कहते है यह उत्तर सामान्य संग्रह चक्षु अचक्षु दर्शन ग्राही है. और मूल सामान्य संग्रह अवधिदर्शन, केवलदर्शन पाही है.
___ तथा सामान्यसंग्रह और विशेष संग्रह. जो छे द्वव्य के समुदाय को द्रव्य मानना उसको सामान्य संग्रह कहते हैं. इसमें सब का ग्रहण होता हे और जीवको जीव द्रव्य कहके अजीव द्रव्य से जुदा भेद करना यह विशेष संग्रह है. इसका विस्तार
• एकं सामान्य सवत्र तस्यैव भावात् तथानित्यं सामान्यं अविनाशात् तथा निरवयव अदेशत्वात् , अक्रियं देशान्तरगमनाभावात् सर्वगतं च सामान्य प्रक्रियत्वादिति ॥