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________________ उपासकाध्ययन श्रावकाचारोंमें तत्त्वार्थमूत्रके ही अनुसार 'विरुद्धराज्यातिक्रम' नाम दिया है, किन्तु रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें 'विलोप' और सोमदेव उपासकाचार में 'विग्रहे संग्रहोऽर्थस्य' नाम दिया है। इसका अर्थ होता है देशमें युद्ध छिड़नेपर धन संचय करना, जैसा कि गत युद्धके समय किया गया है। विलोपका मतलब होता है राजकीय नियमोंकी अवहेलना करके धन संचय करना, और विरुद्धराज्यातिक्रमका मतलब होता है, जब राज्यमें विप्लव हो जाये तो उचित उपायोंको छोडकर दसरे ही तरीकोंसे धन संचय करना। विरुद्धराज्यातिक मका व्याख्यान करते हुए पं० आशाधरजीने कुछ अन्य भी अर्थ किये हैं जो इस प्रकार हैं, (१) राज्यविप्लव हो जानेपर वस्तुओंके मल्य बढ़ानेका प्रयत्न करना अर्थात् कम कीमती वस्तुओंको भी बहुमूल्य करनेका प्रयत्न करना। ( २ ) एक राज्यके निवासीका दूसरे राजाके राज्यमें प्रवेश करना। लिखा है कि अपने राजाकी आज्ञाके बिना दूसरेके राज्यमें जाना यद्यपि चोरी है फिर भी ऐसा करनेवाला यह समझकर ऐसा करता है कि मैंने तो व्यापार किया है, चोरी नहीं की। इसलिए उसका व्रत भंग तो नहीं होता किन्तु उसमें दूषण अवश्य लगता है। यद्यपि ऐसा लगता है कि ये अतीचार व्यापारीवर्गको लक्ष्यमें रखकर बतलाये है किन्तु राजा या उसके कर्मचारियोंको भी ये सब सम्भव है। पहला और दूसरा तो स्पष्ट ही है । जब राजा अपने भण्डारमें वस्तुओंका आदान-प्रदान कराते समय अधिक और कम बाटोंसे खरिदवाता और बिकवाता है तो उसको भी तीसरा और चौथा अतिचार लगता है। जब कोई सामन्त अपने राज्यके विरुद्ध मदद करता है तो वह विरुद्धराज्यातिकम दोषका भागी होता है। लाटीसंहितामें विरुद्धराज्यातिक्रमका व्याख्यान दूसरे ही रूपमें किया है। उसमें लिखा है कि राजाकी आज्ञा युक्त हो वा अयुक्त उसका न पालना विरुद्धराज्यातिकम है। सम्भवतः विरुद्धराज्यातिक्रमका यह व्याख्यान अकबरके राज्यकालके प्रभावसे प्रेरित है। ग्रन्थकारने ग्रन्थके प्रारम्भमें अकबरकी खुब प्रशंसा की है । अस्तु ! ब्रह्मचर्याणुव्रत रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है कि जो पाप समझकर न तो परस्त्रियोंके पास स्वयं जाता है और न दूसरोंको भेजता है उसे परदारनिवृत्ति या स्वदारसन्तोषव्रत कहते हैं। सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि गृहीत या अगृहीत परस्त्रीके साथ रति न करना गृहस्थका चौथा अणुव्रत है। पुरुषार्थ सिद्ध्युपायमें लिखा है कि जो मोहवश अपनी स्त्रीको छोड़ने में असमर्थ हैं उन्हें भी शेष सब स्त्रियोंका सेवन नहीं करना चाहिए । सोमदेव उपासकाचारमें लिखा है, पत्नी और वेश्याको छोड़कर अन्य सब स्त्रियोंको माता बहन और पुत्री समझना गृहस्थका ब्रह्मचर्य है । स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है, जो मन वचन और कायसे परस्त्रीको माता बहन और पुत्रोके समान मानता है वह स्थूल ब्रह्मचर्याणुव्रती है। अमितगतिने भी यही स्वरूप बतलाया है। वसुनन्दि श्रावकाचारमें लिखा है, पर्वके दिन स्त्रीभोग और अनंगक्रीडाको जो सदाके लिए छोड़ देता है। वह स्थूल ब्रह्मचारी है। सागारधर्मामतमें लिखा है, जो पापके भयसे मन वचन और कायसे परस्त्री और वेश्याके पास न स्वयं जाता है और न दूसरोंको भेजता है वह स्वदारसन्तोषी है। - लाटो संहिता में लिखा है कि ब्रह्मचर्याणुव्रतीको धर्मपत्नीका ही सेवन करना चाहिए अन्यका नहीं। उसके रचयिताने परस्त्रीव्यसनके त्यागका उपदेश देते हुए लिखा है, यद्यपि परस्त्रीत्यागका अन्तर्भाव चौथेअणुव्रतमें होता है फिर भी उसका कुछ दिग्दर्शन प्रसंगवश यहाँ भी कराते हैं १. श्लो० ५९ । २. अ० ७, सू० २० । ३. श्लो० ११०। ४. इको. ४०५। ५. गा० ३३८ । ६. अ०४, श्लो० ५२ । ७.१.१०५। ८. पृ०३१-३३ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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