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________________ प्रस्तावना ४. पं० आशाघरजीने सागारधर्मामतमें श्रावकके तीन भेद किये हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक। यह भेद इससे पूर्व किसी ग्रन्थमें मेरे देखने में नहीं आये। हां, महापुराणके उन्तालीसवें पर्वमें कन्वय क्रियाओंका वर्णन करते हए पक्ष, चर्या और साधनका कथन किया है। यह कथन सद्गहित्वसे सम्बन्ध रखता है। सम्भवतया इन्हीं तीनोंके आधारपर आशाधरजीने श्रावकके उक्त भेद किये हैं। आशाधरजीके अनुसार पाक्षिक अष्टमूलगुण पालता है। उसके लिए मक्खन भो त्याज्य है क्योंकि उसमें दो मुहूर्त के बाद बहुत-से जीव उत्पन्न हो जाते हैं। उसे रात्रिमें केवल पानी, औषध और पान-सुपारी आदि ही लेना चाहिए। पानी छानकर काममें लाना चाहिए । वह आरम्भमें भी संकल्पी हिंसा नहीं करता। ग्यारह प्रतिमाओंको नैष्ठिक धावकका भेद बतलाया है। उनमें से प्रथम प्रतिमा दर्शनिक श्रावकका वर्णन करते हुए लिखा है कि वह अष्टमूलगुणोंमें कोई दोष नहीं लगने देता और इसलिए वह(१) मद्य, मांस, मधु, मक्खन वगैरहका व्यापारादि न स्वयं करता है, न दूसरोंसे कराता है और न किसोको वैसी सलाह ही देता है। (२) जो स्त्री या पुरुष इन वस्तुओंका सेवन करते हैं उनके साथ वह खान-पान वगैरह नहीं करता। (३) सब प्रकारके अचार, मुरब्बे, दो दिन रातका रखा हुआ दही, छाछ और फफूंदी हुई भोज्यसामग्री वह नहीं खाता। (४) चमड़ेके कुप्पोंमें रखा पानी, घी, तेल वगैरह वह नहीं खाता। (५) वस्तिकर्म और नेत्रांजनके रूपमें भी मधुका सेवन नहीं करता। (६) अनजान फल नहीं खाता । फलियोंको बिना चोरे नहीं खाता। (७) दिनके प्रथम और अन्तिम मुहूर्तमें भोजन नहीं करता। और रात्रिमें औषधके रूपमें भी घी दूध फल आदिका सेवन नहीं करता। (८) पानीको छाने हुए यदि दो मुहूर्त हो गये हों तो उसे पुनः छानकर ही काममें लेता है। दुर्गन्धित वस्त्रसे पानी नहीं छानता और बिन छानीको उसी जलाशयमें पहुंचा देता है जिससे जल लाया था। (९) जुआ, मांस, मद्य, चोरी, वेश्या, शिकार, परस्त्री, इन सात व्यसनोंका सेवन नहीं करता। (१०) जिस वस्तुको बुरी समझकर स्वयं छोड़ देता है उसका प्रयोग दूसरोंके प्रति भी नहीं करता। __ मुगल बादशाह अकबरके समयका रचा हुआ लाटीसंहिता नामका भी एक श्रावकाचार है। उसके उक्त नियमों में हम और भी कडाई पाते हैं। श्रावककी तिरपन क्रियाओंको दिग्दर्शक एक गाथा इसमें उद्धत है. जो अन्य श्रावकाचारोंमें हमने नहीं देखो। सम्भवतः यह प्राकृत क्रियाकाण्डकी जान पड़ती है। इसमें शद्ध आहारपर अधिक जोर दिया गया है । लिखा है, १. अपने हाथोंसे अन्न वगैरहको शोधना चाहिए। २. अनजान साधर्मीके द्वारा और जानकार विधर्मीके द्वारा शोधा गया या पकाया गया भी भोजन नहीं करना चाहिए। ३. आगपर अकेला पकाया गया या घीके साथ पकाया गया बासी भोजन नहीं करना चाहिए। ४. सब प्रकारका पत्तेका शाक नहीं खाना चाहिए। ५. जब बासी भोजन ही अभक्ष्य है तब आसव, अरिष्ट, अथाना वगैरहका तो कहना ही क्या ? ६. भंग, अफीम धतूरा वगैरह जो मद्यको तरह मादक वस्तुएँ हैं वे सब त्याज्य हैं । ७. इन्होंने अणुवती श्रावकके लिए खेती वगैरह करनेका भी निषेध किया है, लिखा है-कृषि आदिमें महान् आरम्भ करना पड़ता है, उससे क्रूर कर्मोंका १. "कृष्यादयो महारम्भाः क्रूरकर्मार्जनक्षमाः ।। तक्रियानिरतो जीवः कुतो हिंसावकाशवान् ॥१४८॥"
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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