SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना ७१ तो करना ही चाहिए। किन्तु यदि कोई मांसका व्यापार करने लगे तो क्या हानि है ? इस प्रकारको आशंकाका निराकरण करते हुए वे लिखते हैं, "भारम्भेऽपि सदा हिंसां सुधीः सांकल्पिकी त्यजेत् । नतोऽपि कर्षकादुश्चैः पापोऽनमपि धीवरः ॥४२॥ अ० २।" सद्बुद्धिवाले श्रावकको आरम्भमें भी सांकल्पी हिंसा नहीं करनी चाहिए । देखो, मारते हुए किसानसे नहीं मारता हुआ भी मछलीमार अधिक पापी होता है। 'मैं इसे मारूंगा या सताऊंगा या इसका घरबार लुटवा लूंगा' यह सब सांकल्पी हिंसा है। चूंकि पशुओंको मारे बिना मांस उत्पन्न नहीं होता अतः कसाईका काम तो किया ही नहीं जा सकता। उसके सिवा भी जो उद्योग-धन्धा किया जाये उसमें अपनी आजीविकाकी भावना होनी चाहिए दूसरोंको सतानेकी नहीं। किन्तु जो नाना उपायोंके द्वारा धन कमानेको ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं वे अहिंसक नहीं हो सकते । इस लिए आशाधरजीने लिखा है, "सन्तोषपोषतो यः स्यादपारम्मपरिग्रहः मावशुदयकसर्गोऽसावहिंसाणुव्रतं मजेत् ॥१४॥" अर्थात् जो अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रहसे सन्तुष्ट रहता है वहो अहिंसाणुव्रतको पाल सकता है। लोग समझते हैं कि जैनी शासन नहीं कर सकता, क्योंकि उसमें अपराधीको दण्ड देना पड़ता है और उसके देनेसे अहिंसा व्रतमें क्षति पहुंचती है। किन्तु यह भ्रम है। आशाधरजीने इसका निराकरण करते हुए लिखा है,' कहा है कि राजाके द्वारा दोषके अनुसार शत्रु और पुत्रको समान रूपसे दिया गया दण्ड इस लोककी भी रक्षा करता है और परलोकको भी रक्षा करता है, अतः पुराण वगैरहमें जो प्रायः सुना जाता है कि अपराधियोंको नियमानुसार दण्ड देनेवाले चक्रवर्ती वगैरह भी अणुव्रत आदि धारण करते थे सो उसमें कोई विरोध नहीं आता है; क्योंकि वे अपनी पदवी और शक्तिके अनुसार स्थूल हिंसा आदिके त्यागकी प्रतिज्ञा लेते थे। अतः अपनी पदवी और शक्तिके अनुसार प्रत्येक मनुष्य अणुव्रतोंको धारण कर सकता है उसमें केवल सांकल्पी हिंसाके लिए हो कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार विक्रमको तेरहवीं शती तकके ग्रन्थों के अनुशीलनसे अहिंसाणुवतके सम्बन्धमें हम नीचे लिखे निष्कर्षोंपर पहुंचते हैं, १. प्रमादके योगसे प्राणोंके घात करनेको हिंसा कहते हैं । २. जहाँ प्रमादका योग है वहां हिंसा है और दूसरेके प्राणोंका घात हो जानेपर भी जहां प्रमादका योग नहीं है वहाँ हिंसा नहीं है। अतः हिंसा-कर्ताक भावोंपर अवलम्बित है। ३. त्रस जीवोंको हिंसाके त्यागको अहिंसाणुव्रत कहते हैं । अहिंसाणुव्रतका यह एक स्थूल लक्षण है जिसे सबने माना है, किन्तु उसका परिपूर्ण लक्षण है मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनाके संकल्पसे त्रस जीवोंका घात न करना । यह लक्षण रत्नकरण्डश्रावकाचारका है। १. "दण्डो हि केवलो लोकमिमं चामुं च रक्षति । राज्ञा शत्रौ च मित्रे च यथादोषं समं धृतः।। इति वचनादपराधकारिषु यथाविधदण्डप्रणेतृणामपि चक्रवादीनामणुव्रतादिधारणं पुराणादिषु च बहुशः श्रयमाणं न विरुवयते । भास्मीयपदवीशक्त्यनुसारेण तैः स्थूलहिंसादिविरतेः प्रतिज्ञानात् ॥" -सागा. घ. भ. १, श्लो. ५ की टोका।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy