SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० उपासकाध्ययन जन्म और पर जन्मको नष्ट करता है।' आचार्य जिनसेनने वि० सं० ८४० में अपना हरिवंशपुराण रचा था। इसके अठारहवें सर्गमें श्रावक धर्मका वर्णन करते हए ग्रन्थकारने पद्मचरितके ढंगसे ही श्रावकके बारह व्रत गिनाकर अन्तमें लिखा है, मांस, मद्य, मधु, छूत और उदुम्बरफलका छोड़ना तथा वेश्या और परस्त्रीके साथ भोगका त्याग करना आदिको नियम कहते हैं। इससे पहले दसवें सर्गमें भी गृहस्थके पांच अणुव्रतोंको बतलाकर दान, पूजा, तप और शोलको गृहस्थोंका धर्म बतलाया है। यद्यपि ऊपर कहे गये नियममें मूलगुणोंकी परिगणना हो जाती है किन्तु मूलगुण रूपसे उल्लेख हरिवंशपुराण में भी नहीं है। हरिवंशपुराणसे पहले रचे गये वरांगचरितके बाईसवें अध्यायमें भी श्रावकके बारह व्रत गिनाये हैं, किन्तु मूलगुणोंका कोई उल्लेख नहीं है और न मूलगुणोंके अन्तर्गत वस्तुओंका ही प्रकारान्तरसे कोई उल्लेख है । हाँ, दान, पूजा, तप और शीलको श्रावकोंका धर्म अवश्य बतलाया है। स्वामि कातिकेयानुप्रेक्षामें धर्मानुप्रेक्षाका वर्णन करते हुए ग्यारह प्रतिमाओंका निरूपण किया है। उसमें पहली प्रतिमाका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि जो बहुत त्रस जीवोंसे युक्त मद्य मांस आदि निन्दित वस्तुका सेवन नहीं करता वह दर्शनप्रतिमाका धारी श्रावक है। इस तरह पहली प्रतिमावालेके लिए त्याज्यरूपसे मद्य मांसादिकका उल्लेख किया गया है किन्तु मूलगुण रूपसे नहीं। वसुनन्दिश्रावकाचारमें भी पहली प्रतिमाका स्वरूप बतलाते हुए पांच उदुम्बर और सात व्यसनके त्यागीको दर्शनप्रतिमाका धारो श्रावक बतलाया है तथा आगे सात व्यसनोंका विवेचन करते हुए मद्य मांसकी बुराइयां तो बतायी ही है, क्योंकि सात व्यसनोंमें दोनों गर्भित है; किन्तु साथ-ही-साथ मद्यकी भी बुराइयाँ बतलायी है। अतः यद्यपि उन्होंने अष्टमूलगुणका निर्देश नहीं किया तथापि ग्रन्थकारको पहली प्रतिमाधारीके द्वारा पांच उदुम्बर और तीन मकारोंका त्याग इष्ट है, यह स्पष्ट है। ऊपर जिन ग्रन्थोंका कालक्रमके अनुसार उल्लेख किया उनमें श्रावकाचारका वर्णन होते हुए भी मूलगुणोंका या मूलगुण रूपसे कोई निर्देश नहीं मिलता। आगे ऐसे ग्रन्थोंका उल्लेख किया जाता है जिनमें इस प्रकार का निर्देश मिलता है। गृहस्थोंके आठ मूलगुणोंका सबसे प्रथम स्पष्ट निर्देश स्वामी समन्तभद्ररचित रत्नकरण्डश्रावकाचारमें मिलता है। उसमें लिखा है, जिनेन्द्रदेव मद्य, मांस और मधुके त्यागके साथ पांच अणुव्रतोंको गृहस्थोंके अष्टमूलगुण कहते हैं। १. "मांसं मचं निशामुक्ति स्तेयमन्यस्य योषितम् । सेवत यो जनस्तन भवे जन्मद्वयं हतम् ॥२७७॥" २. मांसमग्रमधुगृतीरिवृक्षफलोज्यनम् । वेश्यावधूरतित्याग इत्यादि नियमो मतः ॥४८॥" ३. "बहतससमण्णिदं जं मज्जं मंसादि णिदिदं दग्वं । जो ण य सेवदि णियमा सो इंसण सावओ होदि ॥३२८ ॥" ४. “मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः ॥६६॥"
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy