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________________ ३२६ सोमदेव विरचित [कल्प ४६, श्लो० ६०६अदुर्जनत्वं विनयो विवेकः परोक्षणं तत्त्वविनिश्चयश्च । एते गुणाः पञ्च भवन्ति यस्य स आत्मवान्धमेकथापरः स्यात् ॥९०६॥ असूयकत्वं शठताऽविचारो दुराग्रहः सूक्तविमानना च । पुंसाममी पञ्च भवन्ति दोषास्तरवावबोधप्रतिबन्धनाय ॥९०७॥ पुंसो यथा संशयिताशयस्य दृष्टा न काचित्सफला प्रवृत्तिः। धर्मस्वरूपेऽपि विमूढबुद्धस्तथा न काचित्सफला प्रवृत्तिः ।।६०८॥ जातिपूजाकुलझानरूपसंपत्तपोबले।... उशन्त्यहंयुतोद्रेक मदमस्मयमानसाः॥१०॥ यो मदात्समयस्थानामवहादेन मोदते । स नूनं धर्महा यस्मान्न धर्मो धार्मिकैर्विना ।।६१०॥ देवसेवा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने ॥११॥ धर्मकथा करनेका अधिकारी सज्जनता, विनय, समझदारी, हिताहितकी परीक्षा और तत्त्वोंका निश्चय जिसमें ये पाँच गुण होते हैं वही विशिष्ट आत्मा, धर्म कथा, धार्मिक चर्चा या धर्मोपदेशका अधिकारी है ॥६०६॥ तत्त्वको समझने में प्रतिवन्धक बातें किसीके गुणोंमें दोष लगाना, ठगना, विचारहीनता, हठीपना और अच्छी बातका निरादर करना, मनुष्योंके ये पाँच दोष तत्त्वको समझनेमें रुकावट डालते हैं । अर्थात् जिसमें ये दोष होते हैं वह तत्त्वको समझनेका प्रयत्न नहीं करता और अपनी ही हाँके जाता है ।। ९०७ ॥ ___जैसे प्रत्येक बातको सन्देहकी दृष्टिसे देखनेवाला संशयालु मनुष्य किसी भी काममें सफल होता नहीं देखा जाता, वैसे ही जो मनुष्य धर्मके स्वरूपके विषयमें भी मढबुद्धि है उसकी कोई प्रवृत्ति सफल नहीं होती ॥ ९०८॥ मदोंका निषेध गर्वसे रहित गणधरादिक देव, जाति, प्रतिष्ठा, कुल, ज्ञान, रूप, सम्पत्ति, तप और बलका सहारा लेकर अहंकार करनेको मद या घमंड कहते हैं । अर्थात् लोकमें इन आठ बातोंको लेकर लोग घमंड करते देखे जाते हैं।।९०९।। जो मनुष्य घमण्डमें आकर अपने साधर्मी भाइयोंका अपमान करके प्रसन्न होता है वह निश्चयसे धर्मघातक है; क्योंकि धार्मिकोंके बिना धर्म नहीं है ॥९१०॥ गृहस्थके छह कर्म देवपूजा, गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थोंके छह दैनिक कर्म हैं। प्रत्येक गृहस्थको प्रतिदिन ये छह काम अवश्य करने चाहिए ।। ९११ ॥ १."धर्मस्वरूपेऽपि तथाविधस्य कोदृक् कथं क्वासु कदा प्रवृत्तिः।"-धर्मरत्ना० ५० १३९ । २."ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥२५॥ स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गविताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकविना ॥२६॥"-रत्नकरण्डश्रा० । ३ अयं श्लोकः पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकायामपि विद्यते।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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